Manu Smriti
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ऋतामृताभ्यां जीवेत्तु मृतेन प्रमृतेन वा ।सत्यानृताभ्यां अपि वा न श्ववृत्त्या कदा चन ।।4/4
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत तथा सत्य के ग्रहण और अनृत (असत्यभाषण) के परित्याग द्वारा जीवरक्षा करें।
टिप्पणी :
अन्य स्थल पर ब्राह्मण को कृपा करने का निषेध है तथा इस स्थल पर आज्ञा दी है अतएव यह श्लोक संशयात्मक है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
इन श्लोकों में जिन आजीविकाओं का वर्णन किया गया है, उनका मनु की मौलिक मान्यताओं से स्पष्ट विरोध है । मनु ने १।८७-९१ श्लोकों में चारों वर्णों के जिन कर्मों का परिगणन किया है, उनमें कुछ कर्म तो वर्णों की आजीविकायें ही हैं । किन्तु यहां सभी द्विजों के लिये उनसे भिन्न आजीविकाओं का वर्णन किया गया है और सब के लिये एक सी व्यवस्था देना मनुसम्मत कैसे हो सकती है ? मनु का अभिप्राय यहां आजीविकाओं का परिगणन कराना नहीं, प्रत्युत ‘स्वैः कर्मभिरगर्हितैः’ (४।३) अपने - अपने वर्णानुसार कर्म करते हुए ऐसी आजीविका का प्रतिरोध करना है कि जिससे दूसरे प्राणियों की हिंसा होती हो, छल कपट का आश्रय करना पड़ता हो अथवा अत्यधिक शारीरिक श्रम करना पड़े । इसका मनु ने ४।२-३ तथा ४।११-१२ में स्पष्ट निर्देश किया है । यहाँ ४।३ श्लोक की ४।११ श्लोक से पूर्ण संगति भी है । इनके मध्य में जो वर्णन मिलता है वह प्रसंग - विरूद्ध होने से मान्य नहीं हो सकता । इन श्लोकों में ‘सेवा’ भी एक आजीविका है । मनु ने ‘सेवा करना’ शूद्र का कत्र्तव्य माना है, द्विजातियों का नहीं । ‘सेवा’ को श्ववृत्ति कहकर परित्याज्य कहना असंगत है, क्योंकि द्विजों कासेवा करना कर्म ही नहीं है । इसी प्रकार मनु का निर्देश तो ऐसी आजीविका से है जो छलकपटादि व्यवहार से शून्य हो, किन्तु यहाँ ‘सत्यानृतं तु वाणिज्यम्’ (४।६) सत्यासत्य को वाणिज्य माना है और वाणिज्य - कर्म वैश्य का है, यहाँ उसे द्विजमात्र का माना है । और इसी प्रकार ४।४-५ श्लोकों में लिखा है - मृत - भिक्षा मांग कर तथा प्रमृत - खेती करके द्विज आजीविका करे । मनु ने गृहस्थी को भिक्षा मांगने का कहीं निर्देश नहीं किया है, प्रत्युत ३।१०४ श्लोक में उस गृहस्थी की घोर निन्दा की है, जो दूसरे के अन्न खाने की नियत रखता है । और मनु ने कृषि करना वैश्य का कर्म माना है । किन्तु कृषि करने को यहाँ भिक्षा मांगने से भी निकृष्ट बताना क्या मनु के विरूद्ध नहीं है ? अतः ये श्लोक प्रसंगविरूद्ध तथा मनु की मौलिक मान्यताओं से विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(ऋत + अमृताभ्यां जीवेत् तु) या तो ऋत और अमृत के द्वारा जीविका करें, (मृतेन प्रमृतेन वा) या मृत और प्रमृत के द्वारा। (सत्य-अनृताभ्यां अपि वा) या सत्य और अनृत से भी। (न श्रवृत्त्या कदाचन) परन्तु कुत्ते की वृत्ति से कभी नहीं। नोट - इनका लक्षण अगले श्लोक में देखिये।
 
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