Manu Smriti
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यदाणुमात्रिको भूत्वा बीजं स्थास्नु चरिष्णु च ।समाविशति संसृष्टस्तदा मूर्तिं विमुञ्चति । ।1/56
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
और जब वह पंचभूत (पंचतत्त्व), इन्द्रियों, हृदय, बुद्धि, इच्छा, कर्म और मूढ़ता इन आठ वस्तुओं के संसर्ग से अचल बीज में जाता है, तब वृक्षादि की योनि पाता है और जब चल बीज में जाता है, तब मनुष्यादि की योनि अर्थात् शरीर पाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
१।५५-५६ श्लोक निम्न - आधार से प्रक्षिप्त हैं - इन दोनों श्लोकों में नवीन - वेदान्त की मिथ्या मान्यता का वर्णन है अर्थात् यह जीवात्म अज्ञानवश इन्द्रियसहित शरीर में रहता है, यह स्वयं कुछ भी कर्म नहीं करता, अणुमात्रिक होकर स्थावर - जंगम - जगत् में बीज रूप में प्रवेश करता है, इत्यादि । मनु की मान्यता अद्वैतवाद की कहीं भी नहीं हैं । और पूर्वापर प्रसंग से भी ये श्लोक असंगत हैं । १।५२-५४ तक जागृत तथा सुषुप्तिदशाओं का वर्णन है और १।५७ श्लोक में उन्हीं दशाओं का उपसंहार किया है, अतः बीच में उनसे असम्बद्ध श्लोकों की क्या संगति हो सकती है ?
 
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