Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जीवात्मा जब प्रगाढ़ निद्रा में अचिन्त्य दशा को प्राप्त हो जाता है, तब इन्द्रिय और मन अपने कर्म से मुक्त हो जाते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
(सुस्थे) सृष्टि - कर्म से निवृत्त हुए (तस्मिन् स्वपिति तु) उस परमात्मा के सोने पर (कर्मात्मानः) कर्मों - श्वास - प्रश्वास, चलना - सोना आदि कर्मों में लगे रहने का स्वभाव है जिनका, ऐसे (शरीरिणः) देहधारी जीव भी (स्वकर्मभ्यः, निवर्तन्ते) अपने - अपने कर्मों से निवृत्त हो जाते हैं (च) और (मनः) ‘महत्’ तत्त्व (ग्लानिम्) उदासीनता - सब कार्य - व्यापारों से विरत होने की अवस्था को या अपने कारण में लीन होने की अवस्था को (ऋच्छति) प्राप्त करता है ।