Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इस प्रकार ब्रह्माजी अचिन्त्य पराक्रमी मुझको और सृष्टि को रच कर प्रलय के समय सब को नाश करके ब्रह्म में मिल जाते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
१।५०-५१ श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त हैं - ये श्लोक ब्रह्मा की उत्पत्ति से सम्बद्ध होने से असंगत हैं, क्यों कि ब्रह्मा से सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन पहले प्रक्षिप्त सिद्ध हो चुका है । और जब परमात्मा द्वारा सृष्टि रचने की प्रक्रिया का वर्णन १।८० तक चल रहा है, उसके बीच में ही ब्रह्मा का अन्तर्धान बताकर सृष्टि - रचना के क्रम की समाप्ति बताना कैसे संगत हो सकता है ? इससे यह स्पष्ट है कि ये श्लोक किसी ने बाद में मिलाये हैं । ब्रह्मा कौन है ? क्या परमात्मा से भिन्न है, जो शरीर धारणकर सृष्टि - रचना करके अन्तर्धान हो जाता है । अवयक्त परमात्मा सृष्टि रचयिता है, ब्रह्मा नहीं । दोनों को मानने में दोनों बातें सत्य नहीं हो सकतीं । और परमात्मा ब्रह्मा के रूप में शरीर धारण नहीं कर सकता, क्यों कि वह अकाय - शरीर रहित तथा अज - अजन्मा है । और मनु में १।५२-५४ श्लोकों में सृष्टि के वर्तमान को जागृत - दशा तथा प्रलय को परमात्मा की निद्रावस्था बताया है । किन्तु इन श्लोकों में सृष्टि को बनाकर ही उसका अन्र्धान लिखा है, यह परस्पर विरूद्ध होने से मान्य नहीं हो सकता । और १।६८-७३ श्लोकों में ४ अरब ३२ करोड़ वर्षों का ब्रह्मा का एक दिन माना है, यदि ब्रह्मा शब्द से पूर्वोक्त शरीरधारी ब्रह्मा लिया जाये, तब भी उसे दिन भर जागना चाहिये, फिर उसका अन्तर्धान क्यों ? यथार्थ में ब्राह्मदिन आदि शब्द वर्ष - प्रमाण के वाची हैं , ब्रह्म के नहीं ।