Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
परमात्मा ने जिस-जिस प्राणी को सृष्टि के आदि में जिस-जिस कर्म में लगाया, वह आज तक वैसे ही कर्म करता है, मनुष्य के अतिरिक्त सब भोग योनि कहलाते हैं।
टिप्पणी :
यथा इस संसार में प्राणी परतंत्र अथवा स्वतन्त्र है और स्वतन्त्र मनुष्य अपनी इच्छानुसार कार्य करता है और उन कर्मों के हानि-लाभ का भोक्ता होता है। परतंत्र न अपनी इच्छानुसार कर्म करता है और न उनके हानि लाभ का उत्तरदाता है। वैसे ही स्वतन्त्र मनुष्य अपनी इच्छानुसार कर्म करता है और उनके फल को भोगता है जबकि पशु आदि न अपनी इच्छा से कर्म करते हैं और न उनके फल भोगते हैं। अर्थात् पशु आदि शरीर जीवों के लिए बन्दीगृह हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
(सः प्रभुः) उस परमात्मा ने (प्रथमम्) सृष्टि के आरम्भ में (यं तु) जिस प्राणी को (यस्मिन् कर्मणि) जिस कर्म में (न्ययुड्क्त) लगाया (सः) वह फिर (पुनः पुनः) बार - बार (सृज्यमानः) उत्पन्न होता हुआ (तदेव) उसी कर्म को ही (स्वयम्) अपने आप (भेजे) प्राप्त करने लगा ।