Manu Smriti
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ब्रह्म यस्त्वननुज्ञातं अधीयानादवाप्नुयात् ।स ब्रह्मस्तेयसंयुक्तो नरकं प्रतिपद्यते ।2/116
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो लोग बिना गुरु के वेद को सुन सुना कर सीखते हैं वह वेद के चोर हैं। क्योंकि वेद का सत्य अर्थ गुरु बिना नहीं जाना जा सकता है। और वेद का अशुद्ध अर्थ करने वाला नरक गामी होता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह २।९१ (२।११६) श्लोक निम्न कारण से प्रक्षिप्त है - (क) मनुस्मृति २।८० - ८१ में वेद का पठन - पाठन प्रतिदिन आवश्यक बताते हुए उसमें अनध्याय - अवकाश का भी निषेध किया है । और २।१६६ में ‘चोदितो गुरूणा नित्यम् अप्रचोदित एव वा’ कहकर गुरू की प्रेरणा अथवा बिना प्रेरणा के भी वेदाध्ययन में रत होने का विधान किया है । इन मनु के निर्देशों से स्पष्ट है कि वेदाध्ययन के लिये मनु जी किसी प्रकार बन्धन नहीं मानते । परन्तु प्रस्तुत श्लोक में पढ़ाने वाले की बिना अनुमति के वेद पढ़ने वाले को वेद - ज्ञान की चोरी का भागीदार कहा है । अतः यह कथन मनु की मान्यता से विरूद्ध है । (ख) और वेद का ज्ञान मानव - मात्र के लिये हैं तथा उसका पठन - पाठन स्वीकृति अथवा अस्वीकृति से अपुण्यप्रद तो कदापि हो नहीं सकता । फिर इस श्लोक में चोर के समान तथा नरकगामी होने का भय दिखाना कैसे संगत हो सकता है ? इस श्लोक के वर्णन से इस श्लोक की अर्वाचीनता भी स्पष्ट प्रतीत हो रही है कि जब वेदाधिकार कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित कर दिया गया है और पौराणिक कल्पित स्वर्ग - नरक कोई लोक विशेष माने जाने लगे, उस समय इस श्लोक को बनाकर मिलाया गया है । मनु जी ने स्वर्ग - नरक को स्थानविशेष कहीं भी नहीं माना है ।
 
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