Manu Smriti
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यं एव तु शुचिं विद्यान्नियतब्रह्मचारिणम् ।तस्मै मां ब्रूहि विप्राय निधिपायाप्रमादिने ।2/115

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जिस ब्राह्मण को पवित्र ब्रह्मचारी, सम्पत्ति की रक्षा करने वाला, और बुद्धिमान जानो उस ब्राह्मण को मुझे दो।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
यम् एव तु शुचिं नियत ब्रह्मचारिणम् ‘‘जिसे तुम छल - कपट रहित शुद्ध श्रद्धाभाव से युक्त, जितेन्द्रिय और ब्रह्मचारी विद्यात् समझो तस्मै अप्रमादिने निधिपाय विप्राय मां बू्रहि उस आलस्यरहित और इस खजाने की रक्षा एवं वृद्धि में समर्थ विप्र वेदभक्त जिज्ञासु शिष्य को मुझे पढ़ाना ।’’
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
‘‘जिस शिष्य को तू पवित्र, संयतेन्द्रित और ब्रह्मचारी समझे, उस कल्याण-निधि के रक्षक और प्रमादरहित शिष्य को ही मुझे पढ़ा।’’ अतः, ब्रह्मचारी को कभी असूयक न होना चाहिए। अपितु उसे पवित्र, जितेन्द्रिय, ब्रह्मचारी, वेदरक्षक तथा प्रमादरहित रहना चाहिए।
 
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