Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
वेद की उत्पत्ति के पश्चात् परमात्मा ने वेद के ज्ञाता देवऋषि और उनके सूक्ष्म अवयव शरीर और यज्ञ को बनाया।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
(इस प्रकार १।५-१२ श्लोकों में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार) (सः प्रभुः) उस परमात्मा ने (कर्मात्मनां च देवानाम्) कर्म ही स्वभाव है जिनका ऐसे सूर्य, अग्नि, वायु आदि देवों के (प्राणिनाम्) मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सामान्य प्राणियों के (च) और साध्यानाम् साधक कोटि के विशेष विद्वानों के (गणम्) समुदाय को (१।२३ में वर्णित) (च) तथा (सनातनं सूक्ष्म यज्ञम् एव) सृष्टि - उत्पत्ति काल से प्रलयकाल तक निरन्तर प्रवाहगमन सूक्ष्म संसार अर्थात् महत् अहंकार पंच्चतन्मात्रा आदि सूक्ष्म रूपमय और सूक्ष्मशक्तियों से युक्त संसार को (असृजत्) रचा ।
टिप्पणी :
. १।२२ वें श्लोक की व्याख्या में कुल्लूकभट्ट ने ‘साध्यानां च गणम्’ के साथ ‘सूक्ष्मम्’ पद को मिलाकर ‘सूक्ष्म देवयोनिविशेष’ अर्थ किया है । यह मनु के आशय से विरूद्ध तथा अशास्त्रीय मान्यता है । यथार्थ में मनुष्यों के ही देव, पितर, साध्य, ऋषि आदि ज्ञान - स्तर से भेद हैं । स्वंय मनु ने कर्म फल - व्यवस्था में लिखा है - ‘पितरश्चैव साध्याश्च द्वितीया सात्त्विकी गतिः ।’ अर्थात् जो मध्यम सतोगुणी जीव होते हैं, वे मानवयोनि में पितर तथा साध्य कहलाते हैं । इसी प्रकार श्लोक - पठित ‘सूक्ष्मं यज्ञम्’ के अभिप्राय को न समझकर ‘द्रव्यमय हवन अर्थ भी असंगत है । यहाँ इस जगत् को भी ‘यज्ञ’ शब्द से कहा गया है परमात्मा ने इस यज्ञ - जगत् की सूक्ष्म रचना तथा चकार से स्थूल सर्वविध पदार्थों को रचा है । वेद के पुरूषसूक्त में सृष्टि - रचना को स्पष्ट रूप में ‘यज्ञ’ शब्द से ही कहा है । भगवान् मनु ने भी सृष्ट्युत्पत्ति प्रकरण में यज्ञ शब्द का ही प्रयोग किया है । और ‘सनातनम्’ विणेषण देकर प्रवाह से अनादि जगदू्रप यज्ञ की पुष्टि की है । और १।२३ श्लोक में वेदज्ञान का प्रयोजन ‘यज्ञसिद्धयर्थम् - जगत् के सब धर्मादिव्यवहारों की सिद्धि बताकर मनु ने ‘यज्ञ’ शब्दार्थ को स्पष्ट किया है । क्यों कि वेद का ज्ञान केवल द्रव्यमय हवन के लिये नहीं है । अतः कुल्लूकभट्ट की व्याख्या असंगत है ।’’