Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
फिर परमात्मा ने सब चीजों के नाम और कर्म पृथक्-पृथक्, जैसे पहिली सृष्टि में थे वैसे ही, वेद के द्वारा संसार में प्रकट किये।
टिप्पणी :
इससे यह प्रकट होता है कि यह संसार अब की ही बार नहीं बना, वरन् पहिले भी कई बार बन चुका है। जैसे दिन के पश्चात् रात और रात के पश्चात् दिन होता है, वैसे ही सृष्टि के पश्चात् प्रलय और प्रलय के पश्चात् सृष्टि होती है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. (सः) उस परमात्मा ने (सर्वेषां तु नामानि) सब पदार्थों के नाम (यथा - गो - जाति का ‘गौ’, अश्वजाति का ‘अश्व’ आदि) (च) और (पृथक् - पृथक् कर्माणि) भिन्न - भिन्न कर्म (यथा - ब्राह्मण के वेदाध्यापन, याजन; क्षत्रिय का रक्षा करना; वैश्य का कृषि, गोरक्षा, व्यापार आदि (१।८७-९१) अथवा मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के हिंस्त्र - अहिंस्त्र आदि कर्म (१।२६-३०)) (च) तथा (पृथक् संस्थाः) पृथक् - पृथक् विभाग (जैसे - प्राणियों में मनुष्य, पशु, पक्षी आदि (१।४२-४९)) या व्यवस्थाएं (यथा - चारवर्णों की व्यवस्था (१।३१, १।४७-९१)) (आदौ) सृष्टि के प्रारम्भ में (वेदशब्देभ्यः एव) वेदों के शब्दों से ही (निर्ममे) बनायीं ।
टिप्पणी :
इस वचन के अनुकूल आर्य लोगों ने वेदों का अनुकरण करके जो व्यवस्था की, वह सर्वत्र प्रचलित है । उदाहरणार्थ - सब जगत् में सात ही बार हैं, बारह ही महीने हैं और बारह ही राशियां हैं, इस व्यवस्था को देखो (पू० प्र० ८९) (स्वामी जी ने उक्त श्लोक के बाद ये वाक्य कहे हैं) ।’’
वेद में भी कहा है -
शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।। (यजु० ४०।८)
‘‘अर्थात् आदि सनातन जीवरूप प्रजा के लिए वेद द्वारा परमात्मा ने सब विद्याओं का बोध किया है ।’’ (स० प्र० अष्टम स०)
उपसंहार रूप में समस्त जगत् की उत्पत्ति का वर्णन -
१।२१ वें श्लोक की व्याख्या में कुल्लूकभट्ट ने पृथक् संस्थाः - पृथक् व्यवस्थाओं के उदाहरण में कुम्हार का घड़ा बनाना, जुलाहे का कपड़ा बनाना आदि उदाहरण दिये हैं, वे मनु के आशय से विरूद्ध हैं । क्यों कि मनु ने चार वर्णों की व्यवस्था ही मानी है । घड़ादि बनाना, कपड़ा बुननादि कार्य शिल्पकार्य के अन्तर्गत होने से वश्यवर्ण के ही विभिन्न कार्य हैं । अतः कुम्हारादि उपजातियों की मान्यता मनुसम्मत नहीं है ।
१।२१ वां श्लोक कभी मूल क्रम से पृथक् होकर स्थानान्तरित हो गया है । क्यों कि वेदों की उत्पत्ति १।२३ में बताई है । उसके पश्चात् ही इस श्लोक की संगति उचित हो सकती है । अन्यथा वेदों की उत्पत्ति से पूर्व ही वेदों से सब मनुष्यों के कर्मों का वर्णन करना कैसे संगत हो सकता है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
उस नारायण ने सृष्टि की आदि में वेद के शब्दों से ही सब के पृथक्-पृथक् नाम और कर्म निर्मित किये तथा उनके पृथक-पृथक स्वरूप बनाए। अर्थात् उस प्रभु ने प्रत्येक पदार्थ के नाम, रूप, और कर्म का सत्य ज्ञान सृष्टि की आदि में वेद द्वारा उपदिष्ट किया।१
१. श्लोक ४ से २० तक के लिए ऋ० भू० वेदोत्पत्ति देखें।