Manu Smriti
 HOME >> SHLOK >> COMMENTARY
गत्वा कक्षान्तरं त्वन्यत्समनुज्ञाप्य तं जनम् ।प्रविशेद्भोजनार्थं च स्त्रीवृतोऽन्तःपुरं पुनः ।।7/224
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
दूसरे स्थान पर जाकर वहाँ के पुरुषों के करने योग्य कार्य का निर्देश कर पुनः भोजन करने के हेतु अन्तःपुर (राजप्रासाद) में प्रवेश करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (७।२२२ से २२६) चार श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग - विरोध - (क) (७।२२१) श्लोक में कहा है कि राजा भोजनादि मध्याह्न के कार्यों को करके ‘पुनः कार्याणि चिन्तयेत्’ फिर कार्यों - मुकद्दमों पर विचार करे । और उन मुकद्दमों का वर्णन अष्टमाध्याय के प्रारम्भ में ही है । अतः २२१ के बाद के सभी श्लोक अप्रासंगिक होने से प्रक्षिप्त हैं । क्यों कि इनमें मुकद्दमों के सम्बन्ध में कुछ भी न कहकर अन्य बातों का ही वर्णन किया गया है, जिससे श्लोकों का क्रम भंग हो रहा है । (ख) और (७।२२२) श्लोक स्थानभ्रष्ट प्रतीत होता है । इसलिये इसको हमने प्रकरणानुसार (७।२१६) से पूर्व रखा है । महर्षि - दयानन्द ने भी इसकी व्याख्या २१६ श्लोक से पूर्व दिखाई है । यद्यपि महर्षि ने यह श्लोक उद्धृत नहीं किया है । किन्तु उनकी व्याख्या में इस श्लोक की व्याख्या विद्यमान है । प्रतीत ऐसा हो रहा है कि जिसने राजा के लिये शृंगारादि का मिश्रण किया, उसी ने ‘अलंकृतश्च’ शब्द को जोड़कर इस श्लोक को स्थानभ्रष्ट कर दिया है । शृंगारादि करना मनु की मान्यता में कामज व्यसन होने से यह बात मनुप्रोक्त कदापि नहीं हो सकती । २. पुनरूक्तिदोष - इन श्लोकों में पुनरूक्त बातें भी हैं, जो कि मनुसदृश आप्त - पुरूष द्वारा प्रोक्त नहीं हो सकतीं । (क) जैसे २२३वें श्लोक में राजा के लिये कहा है कि वह सन्ध्या करके गुप्तचरों की बातों को सुने । यह बात राजा के लिये अत्यावश्यक होते हुए भी ७।१५३ श्लोक में कह दी है, इसलिये यहां दुबारा कहना उचित नहीं है । (ख) और इसी प्रकार ७।२२६ श्लोक में कहा है कि राजा यदि अस्वस्थतादि के कारण राज्य - सभादि के कार्य न कर सके तो यह कार्य भृत्य - दूसरे कर्मचारियों को सौंप देवे । किन्तु यह बात तो ७।१४१ श्लोक में कह दी गई है । और वहां पर भृत्य - नौकर न कहकर स्पष्टरूप से कुलीन धर्मात्मा मुख्यमन्त्री को राज्य के कार्य देखने के लिये कहा गया है । यह उचित भी है । इतने उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य को किसी भी नौकर को कैसे सौंपा जा सकता है ? (ग) ७।२१६ श्लोक में राजा मध्याह्न में भोजन के लिये अन्तः पुर में गया है और ७।२२१ श्लोक में भोजनोपरान्त मुकद्दमों पर विचार करने के लिये कहा है । अतः उसके बाद मुकद्दमों पर विचार ही होना चाहिये । किन्तु यहां (२२३-२२५) श्लोकों में प्रसंग को भंग करके सांयकालीन सन्ध्या, दूतों के साथ बातचीत (२२३ में) भोजन के लिये अन्तःपुर में जाना (२२४) फिर मनोरंजन करके सो जाना (२२५) इत्यादि बातें अप्रासंगिक होने से प्रक्षिप्त हैं । क्यों कि यहां राजा के मध्याह्न भोजन के बाद कोई कार्य न दिखाकर सांयकाल का दैनिककृत्य दिखाया गया है । परन्तु मनु की मान्यता के अनुसार राजा के दैनिक कार्यों में मुकद्दमों का सुनना भी मुख्य कार्य है, उसको यहां समाप्त ही कर दिया है । इसलिये २२१ श्लोक की संगति आठवें अध्याय के साथ ठीक लगती है । ३. परस्पर - विरोध - मनु ने ७।४६-४७ श्लोकों में राजा के लिये कामज - दोषों को परित्याज्य बताया है । क्यों कि कामज - व्यसन राजा को अर्थ और धर्म से हीन कर देते हैं । मनु ने कामज व्यसनों में तौर्यत्रिक - गाना, बजाना, नाचना तथा स्त्रियों से संपर्क करनादि को माना है । फिर यहां उन्हीं व्यसनों का विधान मनु कैसे कर सकते थे ? अतः ७।२२४ में स्त्रियों से घिरे रहना और ७।२२५ में तूर्यघोष - तुरही आदि बाजों से प्रसन्न होनादि बातें मनुप्रोक्त न होने से प्रक्षिप्त हैं ।
 
NAME  * :
Comments  * :
POST YOUR COMMENTS