Manu Smriti
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तत्रात्मभूतैः कालज्ञैरहार्यैः परिचारकैः ।सुपरीक्षितं अन्नाद्यं अद्यान्मन्त्रैर्विषापहैः ।।7/217
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अपने समान कालज्ञाता, धनादि पाकर भेद न खोलने वाला ऐसा जो दूत है तथा विष हरण करने वाला जो मन्त्र है इन सब के द्वारा सुपरीक्षित अन्न को भोजन करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (७।२१७ से २२०) चार श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं । १. प्रसंग - विरोध - २१६ श्लोक में राजा को भोजन करने के लिये अन्तःपुर में जाने की बात कही है और २२१ वें श्लोक में भोजन के बाद का राजा का कार्यक्रम लिखा है । परन्तु इनके मध्य में ये चार श्लोक उस क्रम को भंग कर रहे हैं । प्रक्षेपक ने इन श्लोकों में ऐसी बातें लिखी हैं, जिन्हें सामान्यरूप से असंगत नहीं कहा जा सकता । परन्तु उनमें ऐसी असंगत, परस्पर - विरूद्ध, अन्तर्विरोध एवं मिथ्याकल्पित बातें हैं जिन पर विचार करने पर वे मनु - प्रोक्त कदापि नहीं हो सकतीं । २. अन्तर्विरोध - (क) राज्य की शासन - व्यवस्था करना बहुत बड़ा कार्य है, इसलिये अकेला राजा उसे कदापि नहीं चला सकता । अतः ७।५५ में दूसरे मन्त्री आदि सहायकों की भी आवश्यकता बताई है । और राज्य - व्यवस्था के लिये राजा अपना सारा समय लगा सके, एतदर्थ राजा को दैनिक यज्ञों व पक्षेष्टि आदि से भी मनु ने छूट दी है और इन कर्मों के लिये पुरोहित और ऋत्विक् को रखने का विधान किया (७।७८) है । क्या वह राजा अन्तःपुर में जाकर स्त्रियों से सेवा कराता हुआ ही अपना पर्याप्त समय नष्ट कर सकता है ? और मनु ने स्त्रियों के संग को (७।४६-४७) में राजा के लिये कामजव्यसन मानकर त्याज्य बताया है और फिर कामासक्ति बढ़ाने वाले में कहे शृंगारादि का विधान मनु राजा के लिये कैसे कर सकते हैं । (ख) राजा अन्तःपुर में गया है जहां उसकी पत्नी आदि पारिवारिक जन रहते हैं । वहां पत्नी आदि स्वजन राजा के भोजन की परीक्षा करते तो यह उचित था अथवा अन्तःपुर से अन्यत्र भोजन की परीक्षा दूसरे व्यक्ति भी कर सकते थे ? किन्तु यहां (२१७ में) विष - नाशक मन्त्रों से सुपरीक्षित भोजन करने का उल्लेख किया है । यह अयुक्तियुक्त और असंगत विधान मनुप्रोक्त नहीं हो सकता । क्यों कि मन्त्रों से विषनाश कभी नहीं होता । (ग) २१७ श्लोक में विषनाशकमन्त्र और कालज्ञ - ज्योतिषी की बात तो इन्हें स्पष्ट रूप से परवर्ती सिद्ध करती है । क्यों कि यन्त्र - मन्त्र का जाल और फलित - ज्योतिष द्वारा समय का देखना, ये दोनों बातें पौराणिक युग की मिथ्या कल्पित बातें हैं । मध्याह्न में राजा भोजन के लिये गया और उसके बाद ज्योतिषी भोजन खाने का मुहूर्त बतायें तब राजा भोजन करे, यह निरर्थक समय - यापन करना ही है । (घ) और ११८ श्लोक में विष - नाशक रत्नों को राजा धारण करे, यह धारणा भी यान्त्रिक लोगों ने फैलायी है । रत्नधारण करने से विष का नाश होना युक्ति - युक्त भी नहीं है । और यदि रत्नों से ही विष का नाश होना सम्भव था तो २१८ में ही विषनाशक और रोगनाशक औषधियों के मिश्रण करने की बात का कथन निरर्थक है । अतः रत्नधारण करने से विष के नाश की बात कल्पना मात्र ही है । (ड) २२०वां श्लोक पूर्व श्लोकों से ही संबद्ध है और इसमें भी पूर्वोक्त बातों का संकेत और शृंगार करने का कथन है । अतः ये सभी श्लोक असंगत अन्तर्विरोध और मिथ्या कल्पित बातों से पूर्ण होने से परवर्ती काल के प्रक्षेप हैं ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
राजा उस अन्तःपुर में आत्मीय, किस काल में कैसा भोजन बनाना चाहिये इस ऋतुचर्या को जानने वाले, तथा भोजन बनाने में कुशल सेवकों द्वारा तैयार किये गये सुपरीक्षित भोजन को, अन्नदोष को दूर करने वाले वेदमन्त्रों का उच्चारण करके, करे।१
टिप्पणी :
इन वेदमन्त्रों से यह विदित होगा कि अन्न सदा बुद्धि-बल-पराक्रम-वर्धक, रोगनाशक, सुगन्धित और अनेक प्रकार के रसों से युक्त उत्तम होना चाहिए। जैसे कि ‘पितुं नु स्तोषं’ आदि अन्नसूक्त (ऋग्वेद १.१८७) तथा ‘अन्नपते अन्नस्य नो धेहि’ आदि यजुर्वेद ११.८३ में है।
 
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