Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
उनका जो आचार शास्त्रानुसार धर्मानुकूल है उसको प्रदान करें तथा प्रधान पुरुषों सहित रत्नों से राजा का पूजन करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
उन विजित प्रदेश की प्रजाओं या नियुक्त राजपुरूषों द्वारा कही हुई उनकी न्यायोचित बातों को प्रमाणित कर दे अर्थात् प्रतिज्ञापूर्वक स्वीकार कर ले । अभिप्राय यह है कि उनकी जो न्यायोचित बातों को मान लेवे और जो अमान्य बातें हों उनको न माने और प्रधान राजपुरूषों के साथ बन्दीकृत इस राजा का उत्तम वस्तुयें प्रदान करते हुए यथायोग्य सत्कार रखे ।
टिप्पणी :
‘‘जीतकर उनके साथ प्रमाण अर्थात् प्रतिज्ञा आदि लिखा लेवे और जो उचित समय समझे तो उसी के वंशस्थ किसी धार्मिक पुरूष को राजा कर दे और उससे लिखा लेवे कि तुमको हमारी आज्ञा के अनुकूल अर्थात् जैसी धर्मयुक्त राजनीति है, उसके अनुसार चल के न्याय से प्रजा का पालन करना होगा; ऐसे उपदेश करे । और ऐसे पुरूष उनके पास रखे कि जिससे पुनः उपद्रव न हो । और जो हार जाये, उसका सत्कार प्रधान पुरूषों के साथ मिलकर रत्न आदि उत्तम पदार्थों के दान से करे और ऐसा न करे कि जिससे उसको योगक्षेप भी न हो । जो उसको बन्दीगृह करे तो भी उसका सत्कार यथायोग्य रखे, जिससे वह हारने के शोक से रहित होकर आनन्द में रहे ।’’
(स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
परन्तु, राजगद्दी पर बैठाते समय विजयी राजा विजित देशवासी गद्दीनशीन राजा, राजकर्मचारियों व प्रजाओं की प्रतिज्ञाओं को ‘‘कि आप हमें धर्मयुक्त राजनीति के अनुसार जैसी-जैसी आज्ञायें प्रदान करेंगे, तदनुसार चलके हम सदा न्याय से प्रजा का पालन किया करेंगे।’’ इस धर्मानुसार यथोदित आज्ञा-पालन को प्रमाणपत्र (प्रतिज्ञा-पत्र) के रूप में लिपिबद्ध करावे। और, अपने प्रधानपुरुषों के साथ मिलकर इस अभिषिक्त राजा को रत्नादि उत्तम पदार्थों से सत्कृत करे।