Manu Smriti
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अनित्यो विजयो यस्माद्दृश्यते युध्यमानयोः ।पराजयश्च संग्रामे तस्माद्युद्धं विवर्जयेत् ।।7/199
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
क्योंकि युद्ध में जय भी होती है और पराजय भी अतएव यथा साध्य युद्ध को टालना चाहिये।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (७।१९९) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग - विरोध - (क) इस के पूर्वापर श्लोकों में सामादि उपायों से शत्रु को जीतने की बात स्पष्ट रूप से कही है । और २०० वें श्लोक में तो स्पष्ट कहा है कि सामादि उपायों से शत्रु पर विजय सम्भव न हो तो शत्रु को युद्ध से जीते । किन्तु इस श्लोक में युद्ध को त्यागने की बात प्रसंग - विरूद्ध है । २. अन्तर्विरोध - और इस श्लोक का यह कथन भी परस्परविरोधी है कि - युद्ध में विजय का होना अनिश्चित है । यदि राजा के लिये युद्ध त्याज्य है, तो मनु का अब तक का ७।१५८ से लेकर २०० तक का सारा विधान निरर्थक ही हो जाता है और सामादि उपायों का वर्णन और व्यूहादि रचना का सारा कथन अनावश्यक हो जाता है । अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
यस्मात) चूंकि (युदध्यमानयो) युद्ध करने वाले दो दलों की विजय अनित्य हुआ करती है और संगा्रम में पराजय की भी सम्भावना है इसलिये युद्ध को न करना ही अच्छा है।
 
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