Manu Smriti
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उपरुध्यारिं आसीत राष्ट्रं चास्योपपीडयेत् ।दूषयेच्चास्य सततं यवसान्नोदकेन्धनम् ।।7/195

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
शत्रु दुर्ग में रहे वा बाहर रहे तथा युद्ध भी न करता हो परन्तु उसे घेरे रहे और उसके राज्य को पीड़ा पहुँचावे, घास, लकड़ी व जल इनमें व्यर्थ पदार्थों को डाल कर नष्ट करें।
टिप्पणी :
यह उपदेश लालची राजाओं के हित से सम्मिलित किया गया है वरन् राजा की लड़ाई में प्रजा को दुःख देना बहुत बड़ा पाप है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
किसी समय उचित समझे तो शत्रु को चारों ओर से घेरकर रोक रखे और इसके राज्य को पीडि़त कर शत्रु के चारा, अन्न, जल और इन्धन को नष्ट दूषित कर दे । (स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
आवश्यकतानुसार शत्रु को चारों ओर से घेर कर रोक रखे। और, उसके राज्य को पीड़ित कर एकदम उसका चारा, अन्न जल और इन्धन नष्ट व दूषित करदे। उसके तालाबों किंवा नगर के परकोटों-खाइयों को तोड़-फोड़ दे, तथा रात्रि में उसको भय-त्रास देवे। एवं, उस शत्रु को शक्तिहीन करके जीते।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अरिम उपरूघ्य ) शत्रु को धेरकर (आसीत ठहरे )अस्य राष्ट्र च उपपीडयेत उसके राष्ट्र को कष्ट दे। (अस्य यवस अन्न उदक इन्धनम) उसके धास अन्न जल और ईधन को बिगाड दे ।
 
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