Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
तीन प्रकार के जो मार्ग हैं (अर्थात् जांगल अनूप, अपटक) इनका संशोधन करके (अर्थात् वृक्षादि काट कर तथा ऊँची नीची भूमि सम करके) छः प्रकार के जो बल हैं (अर्थात् हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल, सेना, शिल्पी) उनको भोजन व औषधी तथा शिल्पी आदि से सुसज्जित कर उत्तम रीति से शीघ्र ही युद्ध में शत्रु के नगर में जावें।
टिप्पणी :
उपरोक्त रीति से ज्ञात होता है कि भारतवर्ष में प्राचीन समय में युद्ध विद्या में इतनी उन्नत थी कि प्रत्येक अवसर के लिये पृथक पृथक न्यूह रचना होती थी। जो भारतवासी आजकल निर्बल हो गये हैं वे वैदिक धर्म काल में युद्ध विद्याविशारद तथा शक्ति सम्पन्न थे। यद्यपि वर्तमान समय में अधःतितत हो गये हैं परन्तु वेद धर्म के प्राचार से फिर भी जगदगुरु बन सकते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
तीन प्रकार के मार्ग अर्थात् एक - स्थल - भूमि में, दूसरा - जल - समुद्र वा नदियों में, तीसरा - आकाशमार्गों को शुद्ध बनाकर, भूमिमार्ग में रथ, अश्व, हाथी; जल में नौका और आकाश में विमान आदि यानों से जावे और पैदल, रथ, हाथी, घोड़े, शस्त्र और अस्त्र, खान - पान आदि सामग्री को यथावत् साथ ले बलयुक्त पूर्ण करके किसी निमित्त को प्रसिद्ध करके शत्रु के नगर के समीप धीरे धीरे जावे ।
(स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
स्थल-जल-आकाश, इन तीनों मार्गों को शुद्ध करके, हस्त्यारोही-रथारोही-अश्वारोही-पदाति-शस्त्रास्त्र-खान पान, इन छः प्रकार के अपने बलों को यथावत् साथ ले, संग्रामोचित किसी निमित्त को प्रसिद्ध करके, उसी निमित्त से धीरे-धीरे शत्रु-नगर के समीप जावे।