Manu Smriti
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तदा तु यानं आतिष्ठेदरिराष्ट्रं प्रति प्रभुः ।तदानेन विधानेन यायादरिपुरं शनैः ।।7/181
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जब शत्रु-राज्य के ऊपर जाने की इच्छा हो तब आगामी श्लोक में वर्णित उपाय के अनुसार धीरे धीरे शत्रु के नगर जावें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (७।१८१ - १८३) तीन श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं । १. प्रसंग - विरोध - (क) ७।१८० तक श्लोकों में राजनीति का वर्णन किया गया है और उसके बाद युद्ध - कालीन व्यवस्था का विधान १८४ में और इससे अगले श्लोकों में किया गया है । जैसे - युद्ध के समय राज्य के प्रबन्ध की व्यवस्था, युद्ध - यात्रा का सब सामान तैयार करना और अपने गुप्तचरों को गुप्त स्थानों पर लगाना (१८४) और इसके बाद (१८५ में) जल, स्थल तथा नभ तीनों प्रकार के मार्गों को शुद्ध कराये और षड्विध पैदलादि अपनी सेना के साथ शत्रुनगर की तरफ प्रस्थान करे । इतनी व्यवस्था से पूर्व ही शत्रु पर आक्रमण के समय का निर्धारण करना (१८१ - १८३) प्रसंग - विरूद्ध है । २. अन्तर्विरोध - और ७।१७२ श्लोक में कहा है कि राजा जब यह देखे कि अपनी सेना हृष्ट - पुष्ट है और शत्रु की सेना निर्बल है, शत्रु पर आक्रमण करे । इस प्रकार मनु के निर्देशों से स्पष्ट है कि शत्रु पर आक्रमण करने का कोई समय निर्धारण नहीं किया जा सकता । किन्तु इन श्लोकों में मार्गशीर्षादि महीनों का युद्ध के लिये निर्धारण करना उससे विरूद्ध है । और इन श्लोकों में भी १८३ में यह कहा गया है कि जब राजा अपनी विजय निश्चित जाने, तब शत्रु से लड़ने के लिए जाये । इससे भी समय का निर्धारण करना अनुचित है । और मार्गशीर्ष को युद्धार्थ शुभ मास बताना असंगत है क्यों कि राजा यदि युद्ध के लिए शुभाशुभ महीनों पर ही विचार करता रहे तो शत्रु से पराजित हुए बिना नहीं रह सकता । अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
यदा) जब (प्रभुः) राजा (अरिराष्टम) शत्रु के राष्ट्र पर (यानम) चढाई (अतिश्रेष्ठ) करे (तदा) उस समय (अनेन विधानेन) इस रीति से (अग्पिुरम) शत्रु के नगर को जावे ।
 
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