Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
छिन्न अस्त्र वाला, पुत्रादि की मृत्यु के कारण शोकार्त, कठिन घाव लगा हो, भयातुर, युद्ध से प्ररामुख (भागा हुआ) इन सब को सज्जनों के धर्म को विचार कर न मारें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
युद्ध समय में न इधर - उधर खड़े न नपुसंक न हाथ जोड़े हुए न जिसके शिर के बाल खुल गये हों न बैठे हुए न ‘‘मैं तेरे शरण हूं’’ ऐसे को न सोते हुए न मूर्छा को प्राप्त हुए न नग्न हुए न आयुध से रहित न युद्ध करते हुए को देखने वाले न शत्रु के साथी न आयुध के प्रहार से पीड़ा को प्राप्त हुए न दुःखी न अत्यन्त घायल न डरे हुए और न पलायन करते हुए पुरूष को सत्पुरूषों के धर्म का स्मरण करते हुए योद्धालोग कभी मारें ।
कहते हुए -
किन्तु उनको पकड़ के, जो अच्छे हों उन्हें बन्दीगृह में रख दे और भोजन आच्छादन यथावत् देवे । और जो घायल हुए हों उनको औषध आदि विधि पूर्वक करे । न उनको चिढ़ावे, न दुःख देवे, जो उनके योग्य काम हो करावे । विशेष इस पर ध्यान रखें कि स्त्री, बालक वृद्ध और आतुर तथा शोकयुक्त पुरूषों पर शस्त्र कभी न चलावे । उनमें लड़कों को अपने सन्तानवत् पाले और स्त्रियों को भी पालें, उनको अपनी बहन और कन्या के समान समझे, कभी विषयासक्ति की दृष्टि से भी न देखे । जब राज्य अच्छे प्रकार जम जाये और जिनमें पुनः पुनः युद्ध करने की शंका न हो उनको सत्कार पूर्वक छोड़कर अपने - अपने घर वा देश को भेज देवे । और जिनसे भविष्यत् काल में विघ्न होना संभव हो उनको सदा कारागार में रखे ।
(स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
इसी प्रकार, न आयुध-प्रहार से पीड़ा को प्राप्त हुए, न दुःखी, न अत्यन्त घायल, न डरे हुए, और न पलायन करते हुए शत्रु पुरुष को, सत्यपुरुषों के धर्म को स्मरण करके, कभी युद्ध में मारे।१
टिप्पणी :
१. इसके आगे स्वामीजी ने व्याख्या इस प्रकार की है-किन्तु, उनको पकड़ के, जो अच्छे हों, वंदीगृह में रखदे औ भोजन-आच्छादन यथावत् देवे। और जो घायल हुए हों, उनकी औषधादि विधिपूर्वक करे। उनको न चिड़ावे, न दुःख देवे। जो उनके योग्य काम हो, करावे। विशेष कर इस पर ध्यान रक्खे कि स्त्री, बालक, वृद्ध और आतुर तथा शोकयुक्त पुरुषों पर शस्त्र कभी न चलावे। उनके लड़के-वालों को अपने सन्तानवत् पाले और स्त्रियों को भी पाले। उनको अपनी बहिन-कन्या के समान समझे, कभी विषयासक्ति की द्ष्टि से न देखे। जब राज्य अच्छे प्रकार जम जाय, और जिनमें पुनः युद्ध करने की शंका न हो, उनको सत्कारपूर्वक छोड़ कर अपने-अपने घर वा देश को भेज देवे। और जिनसे भविष्यत्-काल में विघ्न होना संभव हो, उनको सदा कारागार में रखे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(न आयुध व्यसन प्राप्तम) न उसको जिसका शस्त्र टूट गया हो (न आर्तम) न शोकातुर को (न अति परि क्षतम) न बहुत घायल को (न भीतम) न डरे हुए को (न परावृतम) न भागने वाले को (सतां धमम अनुस्मरन) अच्छे पुरूषा के कर्तव्य का स्मरण करके ।