Manu Smriti
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सप्तकस्यास्य वर्गस्य सर्वत्रैवानुषङ्गिणः ।पूर्वं पूर्वं गुरुतरं विद्याद्व्यसनं आत्मवान् ।।7/52

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इन सातों का वासस्थान एक ही है, इनमें यथाक्रम एक दूसरे से अधिक निकृष्ट हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. ‘‘जो ये सात दुर्गुण दोनों कागज और क्रोधज दोषों में गिने हैं, इनमें से पूर्व - पूर्व अर्थात् व्यर्थव्यय से कठोर वचन, कठोर वचन से अन्याय से दंड देना, इससे मृगया खेलना, इससे स्त्रियों का अत्यन्त संग, इससे जुआ अर्थात् द्यूत करना और इससे भी मद्यादि सेवन करना बड़ा दुष्ट व्यसन है ।’’ (स० प्र० षष्ठ समु०)
टिप्पणी :
इस सात प्रकार के दुर्गुणों के वर्ग में जो सब स्थानों पर सब मनुष्यों में पाये जाते हैं आत्मा की उन्नति चाहने वाला राजा पहले - पहले व्यसन को अधिक कष्टप्रद समझे ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
इन, कामजन्य चार और क्रोधजन्य तीन, सात महादुष्ट दुर्व्यसनों में, जिन में प्रत्येक दुव्यर्सन अपने से पिछले दुर्व्यसनों को सदा अपने साथ जोड़े रखता है, पहले-पहले दुर्व्यसन को बुद्धिमान् राजा भारी समझे। अर्थात्, बुरे कामों में धन लगाने से कठोर वचन बोलने से बिना अपराध दण्ड देना, बिना अपराध दण्ड देने से शिकार करना, शिकार करने से स्त्रियों का अति संग, स्त्रियों के अति संग से जूआ खेलना, और जूआ खेलने से मादक द्रव्यों का पान अधिक नाशकारी है। क्योंकि मादक द्रव्यों के पान के साथ शेष छै, जूआ खेलने के साथ अगले पांच, स्त्रियों के अति संग के साथ अगले चार, इस प्रकार अन्य दुर्व्यसन भी जुड़े रहते हैं।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अस्य सप्तकस्य वगस्य) यह सात दोष (सर्वत्र एव अनुषडिग्णः) जो प्रायः सभी मनुष्यों में पाये जाते है, इनमें से (पूर्वपूर्व व्यसनम् आत्मवान् गुरूतरम् विद्यात्) पहले पहले व्यसन् को बुद्धिमान् कठिनतर समझें। क्रमशः यह सात दोष यह हैः- नशा, जुआ, सत्री-सग्ड, शिकार, पीटना, गाली देना, धन छीन लेना।
 
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