Manu Smriti
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तस्य सर्वाणि भूतानि स्थावराणि चराणि च ।भयाद्भोगाय कल्पन्ते स्वधर्मान्न चलन्ति च ।।7/15
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (७।१५) श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त है - १. प्रसंग विरोध - ७।१४ वें श्लोक में ‘दण्डमसृजत्’ की संगति ७।१६ श्लोक से है । इन दोनों श्लोकों में दण्ड का विधान किया है । किन्तु इनके मध्य में (७।१५ में) ईश्वरीय - दण्ड का वर्णन उक्त वर्णन से विरूद्ध होने से असंगत है । २. विषय विरोध - यह श्लोक पूर्वापर श्लोकों के विषय के अनुकूल भी नहीं है । क्यों कि यहाँ विषय राजा के द्वारा प्रजा को दिये जाने वाले दण्ड का है । यह बात ७।१४ में ‘तस्यार्थे’ कहकर और ७।१६ में ‘अन्यायवत्र्तिषु’ कहकर स्पष्ट की है । परन्तु इस (७।१५) श्लोक में स्थावरों (वृक्षादि) को भी दण्ड का विधान किया है । यह विषय विरूद्ध होने के साथ साथ राजा के सामथ्र्य से भी बाह्य वर्णन है । यह ईश्वरीय व्यवस्था है कि वह कर्मानुसार जीवों को स्थावर योनि में भेजता है । जैसे कि मनु ने स्वंय स्थावरा.........ज धन्या तामसीगतिः‘ (१२।४२) कहकर स्वीकार किया है । और दूसरे प्राणियों के विषय में भी यह व्यवस्था संगत नहीं होती । क्यों कि लौकिक राजा का अपने क्षेत्र में ही कानून चल सकता है, उससे बाहर नहीं । अतः ‘सर्वाणि भूतानि............... भोगाय कल्पन्ते’ सब प्राणी भोग के लिये समर्थ होते हैं, यह बात मिथ्या ही है । क्यों कि सब प्राणियों में देश - विशेष के राजा के राज्य से अन्यत्र रहने वाले प्राणी कैसे आ सकते हैं ?’
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
तस्य भयात्) उस दण्ड़ के भ से (सर्वाणि भूतानि) सब प्राणी (स्थावराणि चराणि च) स्थावर और जंगम (भोगाय कल्पन्ते) अपने अपने भोग को पाते है। (स्वधर्मात् न चलन्ति च) अपने धर्म से विचलित नहीं होते ।
 
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