Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
भृगुजी कहते हैं कि हे ऋषिजनों ! आप से ब्राह्मणों का चार प्रकार का धर्म कहा है। वह धर्म पवित्र है तथा परलोक में उसका फल अक्षय है। इसके पश्चात् राजाओं का धर्म कहते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
मनु जी महाराज कहते हैं कि हे ऋषियो! यह चार प्रकार अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम करना ब्राह्मण का धर्म है यहां वर्तमान में पुण्य - स्वरूप और शरीर छोड़े पश्चात् मुक्तिरूप अक्षय आनन्द का देने वाला संन्यासधर्म है इसके आगे राजाओं का धर्म मुझ से सुनो ।
(स० प्र० पंच्चम समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
एवं, ब्राह्मण के चतुविधं (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) आश्रम-धर्म आप को बतलाए गये।१ जिन में यह संन्यासाश्रम इस जन्म में पुण्यस्वरूप और शरीर छोड़ने के पश्चात् मुक्तिरूप अक्षय आनन्द-फल का देने वाला है। इसके आगे अब राजाओं का धर्म सुनिए।
टिप्पणी :
१. इस से यह नहीं समझना चाहिए कि आश्रम-धर्मों का पालन करना केवल ब्राह्मण ही का कर्तव्य है, क्षत्रिय वैश्य अन्य द्विजों का नहीं। यहाँ ब्राह्मण शब्द के प्रयोग का यह अभिप्राय है कि संन्यास आश्रम का अधिकारी केवल ब्राह्मण होने से वह तो चारों आश्रमों में प्रवेश करता है, अन्य द्विज केवल तीन ही आश्रमों तक रहते हैं।
अत एव महर्षिदयानन्द ने स० स० ५ में इसी मनुवचन का उद्धरण देकर प्रमाणित किया है कि संन्यास ग्रहण करने का ब्राह्मण ही को अधिकार है, अन्य द्विजों को नहीं। हां, यदि वानप्रस्थाश्रम में तय्यारी करते समय किसी क्षत्रिय या वैश्य में पूर्णविद्या, धर्म तथा परमेश्वर की निष्ठा, और वैराग्य आदि ब्राह्मणवृत्ति प्रकटित हो जावे, तो ब्राह्मण होने से वह भी संन्यास का अधिकारी बन जाता है। इसी लिए अभी पीछे २५ वें श्लोक की व्याख्या करते हुए स्वामी जी ने द्विजमात्र को संन्यास का ग्रहण करने वाला प्रदर्शित किया है।