Manu Smriti
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इदं शरणं अज्ञानां इदं एव विजानताम् ।इदं अन्विच्छतां स्वर्गं इदं आनन्त्यं इच्छताम् ।।6/84

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मूर्ख तथा विद्वान् जो मुख और मुक्ति की अभिलाषा रखते हैं उनको इष्ट लाभ (इच्छित वस्तु के प्राप्त करने) का सत्य मार्ग बतलाने वाला केवल वेद ही है। अतएव वेद का स्वाध्याय सदैव करता रहे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
‘‘जो विविदिषा अर्थात् जानने की इच्छा करके गौण संन्यास लेवे, वह भी विद्या आ अभ्यास, सत्पुरूषों का संग, योगाभ्यास और ओंकार का जप और उसके अर्थ परमेश्वर का विचार भी किया करे ।यही अज्ञानियों का शरण अर्थात् गौणसंन्यासियों और यही विद्वान् संन्यासियों का यही सुख का खोज करने हारे, और यही अनन्त सुख की इच्छा करने हारे मनुष्यों का आश्रय है ।’’ (स० वि० संन्यासाश्रम सं०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
यही ब्रह्म जानने की इच्छा रखने वाले अज्ञानी, गौण संन्यासियों,१ का शरण है और यही विद्वान् संन्यासियों का। एवं यही सुख की खोज करने वालों और यही अनन्त सुख२ की इच्छा रखने वालों का आश्रय है।
टिप्पणी :
१. जो विविदिषा अर्थात् जानने की इच्छा करके गौण संन्यास लेवे, वह भी विद्या का अभ्यास, सत्पुरुषों का संग, योगाभ्यास, और ओंकार का जाप करे तथा उसके अर्थ परमेश्वर का विचार भी किया करे। (सं० वि० संन्यासप्रकरण) २. अनन्त इतना ही है कि मुक्ति-सुख के समय में इस सुख का अन्त अर्थात् विनाश नहीं होता। (सं० वि० संन्यासप्रकरण)
 
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