Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो वेद संसार में यज्ञ देवता तथा जीव के स्वरूप को दर्शाकर ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कराता है अर्थात् देता है उसे वेद के अध्ययन (पढ़ने) तथा अध्यापन (पढ़ाने) में सदैव रत (लगा) रहे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (६।८३) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त हैं -
(क) यह पूर्वापर - प्रसंग को भंग करने से प्रक्षिप्त है । ६।८२ श्लोक में संन्यासी के लिए परमेश्वर का ध्यान लगाने और ध्यान योग को भली भांति जानने की बात कही है । और इस ध्यानयोग का फल - कथन ६।८४ में किया है । इनके मध्य में यज्ञ, देवतासम्बन्धी मन्त्रों के जपने तथा वेदान्त में कहे अध्यात्मविषयक मन्त्रों के जपने की बात क्रम को भंग कर रही है ।
(ख) यह मनुस्मृति धर्मशास्त्र है, ध्यानयोगशास्त्र नहीं । अतः ध्यानयोग के संकेत से ही ‘योगदर्शन में कही बातों का संकेत मिल जाता है । और योग - दर्शन में योगांगों में स्वाध्याय’ के अन्तर्गत ही मन्त्रों के जपने की बात कही है, अतः मन्त्र - जपने की बात का इसमें पिष्टपेषणमात्र ही किया है ।
(ग) और ‘वेदान्ताभिहितम्’ कहने से नवीन - वेदान्त का संकेत मिल रहा है । ऐसा प्रतीत हो रहा है कि किसी नवीन वेदान्ती ने अपनी मान्यता दिखाने के लिए ही यह श्लोक क्रमभंग करके मिलाया है ।
(घ) और ६।८४ श्लोक के शब्द - प्रयोग से ऐसी यह श्लोक असंगत है । क्यों कि इस श्लोक में ‘इदम्’ शब्द एकवचनान्त है और वह ६।८२ में कहे ध्यान योग का संकेत कर रहा है । यद्यपि इस सर्वनाम से ६।८३ में कहे ब्रह्म - मन्त्र के साथ भी संगति सम्भव है, किन्तु पूरे श्लोक की नहीं । क्यों कि श्लोक में कहा है - ‘इदं शरणमज्ञानम्’ । क्या अज्ञानियों के लिए ब्रह्म - मन्त्रों का जप सम्भव है ? अतः ध्यान योग का ही ग्रहण सुसंगत होता है । ध्यान योग से ही अविद्या का नाश होके विवेकख्याति और ज्ञान दीप्ति होती है ।