Manu Smriti
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विप्रयोगं प्रियैश्चैव संयोगं च तथाप्रियैः ।जरया चाभिभवनं व्याधिभिश्चोपपीडनम् ।।6/62

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
और प्रियजनों से वियोग हो जाना तथा शत्रुओं से संपर्क होना और उससे फिर कष्टप्राप्ति होना और बुढ़ापे से आक्रान्त होना तथा रोगों से पीडि़त होना और फिर इस शरीर से जीव का निकल जाना गर्भ में पुनः जन्म लेना और इस प्रकार इस जीव का करोड़ों - सहस्त्रों अर्थात् अनेकों योनियों में आवागमन होना - इनको विचारे और इनके कष्टों को देखकर मुक्ति में मन लगावे ।
 
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