Manu Smriti
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अभिपूजितलाभांस्तु जुगुप्सेतैव सर्वशः ।अभिपूजितलाभैश्च यतिर्मुक्तोऽपि बध्यते ।।6/58

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
और बहुत अधिक आदर - सत्कार से मिलने वाली भिक्षा या अन्य लाभों से सर्वथा उपेक्षा बरते, क्यों कि बहुत अधिक आदर - सत्कार से प्राप्त होने वाली भिक्षा से अथवा लाभों से मुक्त संन्यासी भी विषयों के बंधन में फंस जाता है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अभिपूजितलाभान् तु सर्वशः एव जुगुप्सेत) मजेदार चीजें जिनको सब लोग चाहते है उनसे सदा बचा रहें। (अभिपूजि) तलाभैः च) मजोदार चीजों से (मुक्तः अपि यतिः बद्धयते) मुक्त संन्यासी भी बन्धन में फँस जाता है।
 
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