Manu Smriti
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अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कं चन ।न चेमं देहं आश्रित्य वैरं कुर्वीत केन चित् ।।6/47

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
लोगों के अपशब्दों को सहन करें, किसी का अपमान न करें, न किसी से शत्रुता करें, तथा अपने चित्त में सांसारिक मनुष्यों को नाशवान जानकर किसी से प्रीति व बैर (शत्रुता) का ध्यान भी न करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
अपमानजनक वचनों को सहन करले कभी किसी का अपमान न करे और इस शरीर का आश्रम लेकर अर्थात् अपने शरीर - मन, वाणी, कर्म से किसी से वैर न करे ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
तितिक्षेत) बुराई करनेवालों की उपेक्षा करें। (कंचन न अवमन्येत्) किसी का अनादर न करे। (इमं देहं आश्रित्य) इस देहक का आश्रय लेकर (केनचित् वैरं न कुर्वीत्) किसी से वैर न करे।
 
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