Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अग्निहोत्रादि सांसारिक कर्म तथा घर को इच्छा को परित्याग कर बुद्धि को स्थिर रख कर मुनिवृत्ति में मन लगायें तथा गाँव से भिक्षा माँग कर निर्वाह करें। ब्रह्म में चित्त वृत्ति लगाये हुए अन्नर्थ गाँव का आश्रम लें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
वह सन्ंयासी आहवनीयादि अग्नियों से रहित और कहीं अपना स्वाभिमत घर भी न बांधे और अन्न - वस्त्र आदि के लिए ग्राम का आश्रय लेवे बुरे मनुष्यों की उपेक्षा करता और स्थिरबुद्धि मननशील होकर परमेश्वर में अपनी भावना का समाधान करता हुआ विचरे ।
(सं० वि० संन्यासाश्रम सं०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
वह संन्यासा आहवनीयादि अग्नियों से रहित हो, तथा कहीं भी अपना स्वाभिमत घर न बांधे। अन्न-वस्त्रादि के लिये ग्राम का आश्रय लेवे, बुरे मनुष्यों की उपेक्षा करे। और, स्थिर बुद्धि तथा मननशील होकर परमेश्वर में अपनी भावना को समाहित करे।१
टिप्पणी :
१. इसी पद में भ्रान्ति में पड़ के संन्यासियों का दाह नहीं करते और संन्यासी लोग अग्नि को नहीं छूते। यह पाप संन्यासियों के पीछे लग गया। यहां आहवनीयादि संज्ञक अग्नियों को छोड़ना है, स्पर्श या दाहकर्म छोड़ना नहीं है। (सं० वि० संन्यास)।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अन्+अग्निः, अ+निकेतः स्यात्) न उसका चूल्हा हो, न घर हो। (अन्नार्थ ग्रामं आश्रयेत्) अन्न के लिये गाँव मे जावे।(उपेक्षकः) उदासीन होकर, (असंकुसुकः) चंचल न हो। (मनुः भाव समाहितः) मुनि के भावों को रखकर। अर्थात् भोजन के लिये ग्राम में जाने पर भी लोभ या लोलुपता न करे।