Manu Smriti
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अपराजितां वास्थाय व्रजेद्दिशं अजिह्मगः ।आ निपाताच्छरीरस्य युक्तो वार्यनिलाशनः ।।6/31
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
चाहे एक स्थान पर बैठकर समाधि द्वारा प्राकृत पदार्थों से पृथक्त्व प्राप्त करें अथवा किसी और को जल वालू खाता हुआ चल दें, जब तक कि शरीर का नाश न हो जावे।
टिप्पणी :
31वें श्लोक में उनकी अवस्था वालों के अर्थ उपदेश हैं जिनको मुक्ति का उपकार हो गया है और अब किसी साधन की आवश्यकता नहीं है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (६।३१ - ३२) दोनों श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) ये श्लोक पूर्वापर प्रसंग - विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । मनु ने इस शास्त्र में चार आश्रमों का वर्णन करते हुए वानप्रस्थी के लिये निरन्तर वन में रहने के लिये ही लिखा है । इसकी पुष्टि ६।१ श्लोक से तथा ‘वनेषु विहृत्यैवं तृतीयं भागमायुषः’ ६।३३ श्लोक से होती है । ६।२९ श्लोक में भी ‘वने वसन्’ कहकर और दृढ़ता दिखाई है और ६।२९ - ३० श्लोकों का ६।३३ से सम्बन्ध भी स्पष्ट होता है । किन्तु इनके बीच में (६।३१ - ३२) श्लोकों का वर्णन उस क्रम को भंग कर रहा है । क्यों कि इनमें वानप्रस्थी रहते हुए शरीर त्याग करने तथा उसके फल मोक्षप्राप्ति का वर्णन है । जब वानप्रस्थ आश्रम का समय मनु जी ने आयु का तृतीय - भाग ही माना है, फिर यहां मृत्युपर्यन्त का कथन मनु की मान्यता से विरूद्ध है । (ख) और इन श्लोकों में अन्तर्विरोध भी है । जैसे १. मनु ने वानप्रस्थी के लिए ६।१३ में नीवारादि धान्य, वन्य फल मूलादि भक्ष्य बताये हैं । किन्तु यहां (६।३१ में) वार्यनिलाशनः - जल और वायु को ही उसका भक्ष्य बताया है । यह जहां पूर्वोक्त मनु की मान्यता से विरूद्ध है वहां अयुक्तियुक्त भी है । क्यों कि यह भौतिक शरीर केवल वायु - जल के आश्रय से जीवित नहीं रह सकता । २. और ६।३३ में मानव - जीवन का तृतीय भाग ही वानप्रस्थ के लिये रक्खा है, किन्तु यहां (६।३१ - ३२में) जीवनपर्यन्त वानप्रस्थी बने रहने की बात परस्पर विरूद्ध मान्यता है । और मनु के चारों आश्रमों की व्यवस्था भी फिर नहीं बन सकेगी । अतः तृतीयभाग तक ही वानप्रस्थ का समय मनुसम्मत है । ३. इसी प्रकार ६।३१ में ‘अपराजितां दिशम्’ शब्द भी भ्रान्त है । क्यों कि ब्रह्म की प्राप्ति किसी दिशा विशेष में जाने से नहीं होती । क्यों कि ब्रह्म तो सर्वव्यापक चेतनसत्ता है । ४. और ‘आसां महर्षिचर्याणां त्यक्त्वा अन्यतमया तनुम्’ (अर्थात् वानप्रस्थी इन महर्षियों की दिनचर्याओं में से किसी एक दिनचर्या से शरीर को छोड़कर) इस ६।३२ श्लोक की यह बात भी कल्पित है । यहां प्रथम तो महर्षियों की विभिन्न दिनचर्यायें ही नहीं दिखाई हैं, अतः यह कथन असंगत है । और किसी एक से ही मोक्ष प्राप्ति हो जाती है, तो क्या उन विभिन्न दिनचर्याओं में परस्पर विरोध है, अथवा अविरोध ? विरोध है, तो वे एक लक्ष्य को प्राप्त नहीं करा सकती और अविरोध है, तो उनमें विभिन्नता का क्या कारण है ? अतः ये श्लोक अप्रासंगिक, मनु के आशय से विरूद्ध तथा कल्पित होने से प्रक्षिप्त हैं ।
 
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