Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यथाविधि अग्नि होत्र की अग्नि को अपने गृह में स्थित करें। तत्पश्चात् अग्नि तथा स्थान से पृथक् होकर मूल फल खाता हुआ शास्त्र को विचारें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (६।१७ - २५) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) ये श्लोक प्रसंग विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । इनसे पूर्व के श्लोकों में (६।१३ - १६) वानप्रस्थी के लिए भक्ष्य - अभक्ष्य का वर्णन किया है और इसी प्रसंग का वर्णन (६।२६ - २७) श्लोकों में है । ६।१६ श्लोक में वानप्रस्थी को ग्राम्य - भोजन का निषेध किया गया है और उसका कारण ६।२६ में स्पष्ट किया है कि ग्राम्य भोजन से सुखों में आसक्ति तथा मोह - ममता का दोष उत्पन्न हो सकता है । अतः ६।१६ के बाद ६।२६ श्लोक की संगति लगती है । और भक्ष्याभक्ष्य प्रकरण के पूर्ण हो जाने पर तत्संबंधी विकल्प भी ६।२७ में दिया है कि फलादि प्राप्त न होने पर वनवासी तपस्वियों से भिक्षा कर सकता है, ग्रामादि से नहीं । इनके बीच में ६।१७ - २५ तक के श्लोकों में भक्ष्या - भक्ष्य का विषय न होकर उससे भिन्न विषय का वर्णन करने से प्रसंग - भंग हो गया है । क्यों कि इन श्लोकों में (६।१७ में) खाने के विविध प्रकार, (६।१८ में) संचय करने की विभिन्न अवधियों का वर्णन, (६।१९ - २० में) खाने के समयों का वर्णन, (६।२१ में) पुष्प, मूलफलों का पुनः वर्णन (क्यों कि ६।१३ में इनको कह दिया है), और (६।२२ - २५) तक श्लोकों में अनावश्यक हठ - योग की तपस्या का वर्णन किया है ।
(ख) मनु जी की यह शैली है कि वे विषय को एकत्र ही पूर्ण करके तत्पश्चात् दूसरे विषय को कहते हैं । इसी प्रकार यहां भी (६।१३ में) भक्ष्य - पदार्थों का वर्णन करके उसके बाद (६।१४ - १६ में) अभक्ष्य पदार्थों का वर्णन किया । किन्तु यहां उस शैली के विरूद्ध (६।२१में) भक्ष्य पदार्थों का वर्णन है और वह भी पुनरूक्त होने से अनावश्यक है । एक प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः उसे दुबारा कहना अप्रासंगिक है । इसी प्रकार ६।१५ में नीवारादि धान्य - संचय की बात कह दी गई है, किन्तु ६।१८ में पुनः संचय की चर्चा करना अप्रासंगिक है ।
(ग) इन श्लोकों में परस्पर - विरूद्ध बातें भी हैं । जैसे - १. ६।१५ में कहा है कि वानप्रस्थी एक वर्ष के लिए धान्य - संचय करे और पूर्वसंचित के शेष धान्यादि को आश्विन मास में परित्याग कर देवे । किन्तु यहां (६।१८ में) एक दिन, एकमास, छः मास और एक वर्ष तक धान्यादि संचय के विकल्प दिए हैं । जो पूर्वोक्त कथन से विरूद्ध एंव अनावश्यक हैं । और नीवारादि धान्यों पर यह व्यवस्था लागू भी नहीं हो सकती, क्यों कि ये धान्यादि ऋतु - विशेष में ही उपलब्ध हो सकते हैं, सदा नहीं । जो एक दिन का ही संचय करेगा अथवा एक मास का तो उसका निर्वाह कैसे होगा ? क्यों कि नीवारादि प्रतिदिन या प्रतिमास तो प्राप्त ही न होंगे । २. वानप्रस्थी के लिये सातवें और बारहवें श्लोक में कहा है कि यज्ञों के बाद वे शेष भोजन करें । किन्तु ६।१९ श्लोक में भोजन के चार विकल्प बताये हैं । क्या इन विकल्पों में पच्चंयज्ञों का कत्र्तव्य पूरा हो सकता है । जो रात को ही भोजन करेगा, वह किस प्रकार अतिथि आदि यज्ञ कर सकता है ? और रात को खाना तथा दिन में न खाना यह कोई मनुष्य की दिनचर्या नहीं है । यह तो राक्षसी वृत्ति है और इन विकल्पों में समन्वय कैसे होगा ? जो रात या दिन में खायेगा, वह चार या आठ प्रहर के अन्तर्गत ही होगा, फिर इनको पृथक् - पृथक् कहने का क्या प्रयोजन होगा ? ऐसी अयुक्तियुक्त बातें मनुप्रोक्त नहीं हो सकतीं । ३. और मनु जी ने २।१३९ (१६४), १४१(१६६), १४२ (१६७), १५० (१७५), तथा ६।७० - ७२ इत्यादि श्लोकों में प्राणायाम, वेदाध्ययन, जितेन्द्रियता आदि को तप माना है । परन्तु यहां उसके विरूद्ध (६।२२ - २५) में भूमि पर लेटे रहना, दिन में पैरों पर खड़े रहना, ग्रीष्म ऋतु में पंच्चाग्नितप करना, वर्षा में नग्न होकर बैठना, हेमन्त ऋतु में गीले कपड़े धारण करना और कठोर तपस्या से शरीर को सुखाना इत्यादि हठयुक्त तपस्या का विधान किया है । मनु ऐसे निरर्थक तपों का विधान कैसे कर सकते हैं ? क्यों कि उन्होंने तो (२।७५ (१०० में)) स्पष्ट कहा है - ‘अक्षिण्वन् योगतः तनुम्’ अर्थात् योग का अभ्यास (तप) ऐसा होना चाहिए, जिससे शरीर का क्षय या हानि न हो । ४. और ६।२४ में मृतपितरों के तर्पण का विधान भी मनु की मान्यता से विरूद्ध है । क्यों कि मनु तो जीवित पितरों का ही तर्पण मानते हैं । एतदर्थ ३।८२ तथा ३।११९ - २८४ श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । इन अन्तर्विरोधों के कारण ये श्लोक मनु - प्रोक्त नहीं हो सकते ।