Manu Smriti
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देवताभ्यस्तु तद्धुत्वा वन्यं मेध्यतरं हविः ।शेषं आत्मनि युञ्जीत लवणं च स्वयं कृतम् ।।6/12

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अति शुद्ध नया उत्तम हवन योग्य पदार्थ देवें। हवन द्वारा अग्नि वायु आदि देवताओं को देवें। हवन के पश्चात् जो शेष रहे उसे स्वयम् भोजन करें तथा अपने बनाये हुए लवण पदार्थों को भी खावें।
टिप्पणी :
लवणान्नि पृथक् करने से यह तात्पर्य है कि हवन में लवण मिश्रित पदार्थ न डाले जावें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
उस पवित्र वन के अन्नों से निर्मित हवि को देवताओं के लिए होम कर - आहुति देकर शेष भोजन को और अपने लिए बनाये गये लवणयुक्त पदार्थों को अपने खाने के लिए प्रयोग में लायें ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
एवं, उसी पवित्र वन्य हवि से अग्निहोत्र करके शेष से अपना निर्वाह करके और नमक भी स्वयं तैयार किया हुआ वर्ते।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(तद् वन्यं मेध्यतरं हविः) उस वन की पवित्र हवि को (देवताभ्यः हुत्वा) अग्नि में आहुति देकर (शेषम् आत्मनि युजीत) शेष को स्वयं अपने प्रयोग में लावें। (लवणं च स्वयं कृतम्) स्वयं अपने बनाये हुए नमक का अर्थात् या तो नमक न खावे या स्वयं बनाया हुआ खावें।
 
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