Manu Smriti
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गृहस्थस्तु यथा पश्येद्वलीपलितं आत्मनः ।अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत् ।।6/2

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
गृहस्थ पुरुष अपने को वृद्धावस्था में देखें और पौत्र (पुत्र के पुत्र) को देखें तब वन में बास करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. गृहस्थ लोग जब अपनी देह का चमड़ा ढीला और श्वेत केश होते हुए देखें और पुत्र का भी पुत्र हो जाये तब वन का आश्रय लेवे । (सं० वि० वानप्रस्थाश्रम सं०)
टिप्पणी :
‘‘परन्तु जब गृहस्थ शिर के केश श्वेत और त्वचा ढीली हो जाये और लड़के का लड़का भी हो गया हो तब वन में जाके बसें ।’’ (स० प्र० पंच्चमसमु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
गृहस्थ जब अपने देहका चमड़ा ढीला और केश श्वेत होते देखे, और पुत्र का भी पुत्र हो जावे, तब वन का आश्रय लेवे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(गृहस्थः तु) गृहस्थ (यदा) जब (आत्मनः) अपने (वली पलितम्) शरीर को कमजोर (पश्येत्) देखे। (अपत्यस्य च अपत्यम्) और पुत्र के पुत्र को देखे (तथा) तब (अरण्यं समाश्रेयत्) वानप्रस्थी हो जावे।
 
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