Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पापियों की मुक्ति को ब्राह्मण पवित्र करता है। वह अपनी सात पुश्त ऊपर ओर सात पुश्त नीचे की पवित्र करता है। वह सारी पृथ्वी को अकेला धारण कर सकता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
१।९२-१०७ तक १६ श्लोक निम्न - कारणों से प्रक्षिप्त हैं - क्यों कि इनमें ‘पक्षपात - पूर्ण’ ब्राह्मणों की प्रशंसा और मध्य में इस शास्त्र की अप्राकरणिक प्रशंसा की गई है । इस अध्याय के वण्र्य - विषय से इनकी कोई संगति नहीं है । वर्णों के कर्म - विवेचन से यदि कोई इनका सम्बन्ध बताना चाहे, तो भी उचित नहीं । क्यों कि वर्णों में दूसरे वर्ण भी अपेक्षाकृत प्रशस्य हैं, उनका यहाँ लेशमात्र भी वर्णन क्यों नहीं ? ब्राह्मण को ही धर्म की मूत्र्ति , सब धनों का स्वामी , तथा उसी की कृपा से दूसरे वर्णों का जीवन बताना अतिशयोक्तिपूर्ण, असंगत वर्णन किया है । और पूर्वापर - प्रकरण से भी इन श्लोकों का स्पष्ट विरोध है । इससे पूर्व १।८७-९१ श्लोकों में वर्णों के कर्मों का वर्णन किया है , और १।१०८ से कर्मानुसार आचरण को धर्म कहने से धर्म का स्वरूप बताया गया है । १।१०२ से १०७ तक श्लोकों में इस शास्त्र को पढ़ने का अधिकारी तथा शास्त्र की महिमा बताई है, इसकी संगति ग्रन्थ के प्रारम्भ अथवा अन्त में तो कुछ अंश में संगत कही जा सकती है, किन्तु यहां मध्य में सर्वथा असंगत है । इन श्लोकों में ‘शास्त्र’ शब्द का प्रयोग भी इन्हें अर्वाचीन ही सिद्ध करता है, क्यों कि इस मनुस्मृति के लिये ‘शास्त्र’ शब्द का प्रयोग मनु जैसा आप्तपुरूष स्वयं नहीं कर सकता । और जो मूल प्रवक्ता १।१४४ में स्वयं यह कह रहा है कि मैंने इस अध्याय में सृष्टि - उत्पत्ति तथा धर्मोत्पत्ति ही कही है, क्या उसके कथन के विरूद्ध दूसरे विषयों का वर्णन उचित हो सकता है ? ये श्लोक उस समय के विरूद्ध दूसरे विषयों का वर्णन उचित हो सकता है ? ये श्लोक उस समय के सिद्ध होते हैं कि जिस समय धर्म - शास्त्र के नाम पर अनेक - स्मृतियों की रचना हो गई, उस समय किसी विद्वान् ने इसकी प्रशंसा में इन श्लोकों को मिलाया है । और मनु की शैली के अनुकूल भी ये श्लोक नहीं हैं, मनु तो प्रथम विषय का निर्देश करके और समाप्ति पर भी विषय - निर्देश अवश्य करते हैं । इन श्लोकों में कहीं भी विषय का निर्देश नहीं है । और मनु की प्रवचन - शैली का भी इन श्लोकों में अभाव है ।
और १।९४-९५ श्लोकों में ब्राह्मण के मुख से पितरों का हव्य - कव्य भक्षण करना तथा १।१०५ में अगली - पिछली सात - सात पीढि़यों का पवित्र करना मनु की मान्यता से विरूद्ध है । मृतक - श्राद्ध की पौराणिक भावना के प्रचलित होने पर इन श्लोकों को किसी ने मिलाया है । मनु के मत में वेद - विरूद्ध मृतक - श्राद्ध का कोई स्थान नहीं है, वे तो जीवित - पितरों की ही सेवा का सर्वत्र विधान करते हैं । और सात - सात पीढि़यों का पवित्र होना कर्मानुसार - फल - व्यवस्था को खण्डित करता है । चाहे मनुष्य कितने भी पाप - कर्म करते रहें, और इस शास्त्र का पाठ कर लें, यदि वे पापी पवित्र हो जायेंगे, तो पाप का फल कौन भोगेगा ? इससे पाप करने को प्रोत्साहन ही मिलता है । अतः किसी अधर्मात्मा पुरूष ने ही ये श्लोक बनाये हैं , मनु जैसे पवित्र व्यक्ति ऐसी वेद तथा ईश्वरीय न्याय के विरूद्ध - बात को कभी नहीं लिख सकता । और १।१०२ वें श्लोक में मनु अपने को ‘धीमान्’ भी नहीं कह सकते ।
और मनु ने वर्ण - व्यवस्था को कर्म - मूलक माना है, जन्ममूलक नहीं, किन्तु इन (१।९८-९९) श्लोकों में ब्राह्मण को जन्म से ही बड़ा कहकर जन्म मूलक माना है । यदि जन्म से ही कोई बड़ा या श्रेष्ठ हो जाता है, उसे कर्म करने (विद्यादि पढ़ना आदि) की क्या आवश्यकता रहेगी ? परन्तु मनु की मान्यता कर्म - प्रधान है । जो द्विज (२।१६८) वेद से अन्यत्र श्रम करता है, जो (२।१०३) प्रातः सांय सन्ध्या नहीं करता, उसको मनु ने शूद्र मानकर सभी द्विज - कर्मों से बहिष्कार का आदेश दिया है । और ४।२४५ वें श्लोक में तो स्पष्ट ही जन्म मूलक श्रेष्ठता का विरोध करके लिखा है कि ब्राह्मण श्रेष्ठ - कर्मों से श्रेष्ठता तथा दुष्कर्मों के करने से हीनता को प्राप्त होता है । और निश्चित समय पर उपनयनादि न करने से ‘व्रात्य’ कहलाता है । इससे भी जन्म की श्रेष्ठता का खण्डन होता है । और मनु ने १।३१ में शरीर के अंगों से जो वर्णों की समानता बताई है, वह भी वर्णों में कर्म को मुख्य मानकर ही आलंकारिक वर्णन किया है । अतः जन्म से श्रेष्ठता बताने वाले, मृतकश्राद्ध के पोषक तथा पूर्वापर प्रकरण से विरूद्ध ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।