अब प्रथमाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा वा विचार किया जाता है। मैं इस अध्याय वा दूसरे आदि अध्यायों में जिन-जिन श्लोकों को प्रक्षिप्त कहूं वा जताऊंगा वहां सर्वत्र अपनी अनुमति का प्रकाश करना ही प्रयोजन है। किन्तु वहां कुछ आग्रहपूर्वक कहना उचित नहीं। यदि उसमें किसी विद्वान् वा समुदाय को विरोध जान पड़े तो उसको मित्रता पूर्वक कहना चाहिये कि इसको इस प्रकार करना योग्य है। यदि सत्य से विपरीत हो गया दीख वा जान पड़ेगा, तो शीघ्र वैसा अविरुद्ध सुधार दिया जायेगा।
जहां-जहां यह पीछे मिलाया गया वा यह प्रक्षिप्त है ऐसा कहेंगे वहां-वहां मुख्य कर निम्नलिखित कारण जानने चाहियें। जो वाक्य किसी प्रकार वेद के आशय वा वेद के सिद्धान्त से तथा अन्य ब्राह्मण, उपनिषद्, न्याय और मीमांसादि अनेक ग्रन्थों से विरुद्ध हो वह प्रक्षिप्त है अर्थात् किसी विद्वान्, ऋषि, महर्षि का बनाया नहीं है। क्योंकि वेदानुयायी, शुद्ध, आप्त, तपस्वी, बहुदृष्ट, बहुश्रुत, जिन्होंने जानने योग्य को जान लिया और यथार्थ सत्य को प्राप्त कर लिया, ऐसे ऋषियों का कथन कदापि वेद से विरुद्ध नहीं हो सकता। तथा जो असम्बद्ध प्रलाप के तुल्य अयोग्य स्थान में प्रयुक्त, प्रकरण से विरुद्ध दूर से दीखता है। क्योंकि विद्वान् लोग प्रकरणविरुद्ध कथन कहीं नहीं करते। इससे प्रकरणविरुद्ध प्रक्षिप्त है। तीसरे पुनरुक्त श्लोक भी प्रक्षिप्त हैं, जैसे प्रथमाध्याय में जो कहा वही तीसरे अथवा चौथे में वैसे ही वा उसके पर्यायवाचक वा उस प्रकार के आशय वाले पदों से फिर-फिर कहा जावे, वह पुनरुक्त होने से प्रक्षिप्त समझा जाता है। तथा जो परस्पर विरुद्ध हो कि पूर्व जो कहा उससे विरुद्ध आगे कहा जावे। उन दोनों में एक ही ठीक वा सत्य ठहर सकता है। परन्तु सम्मतिभेद को छोड़कर, अर्थात् जहां कहीं सम्मतिभेद दिखाया गया वहां तो दूसरे की विरुद्ध सम्मति जताने के लिये ही ग्रन्थकर्त्ता ने दो प्रकार के वचन कहे हैं, किन्तु वहां विरोध नहीं है, जिस कारण प्रक्षिप्त हो। इत्यादि कारण प्रक्षिप्त जताने के लिये होते हैं, जिनका यहां उदाहरण मात्र दिखाया है।
प्रथमाध्याय में सृष्टि प्रक्रिया का सामान्य कर वर्णन है। उसके पश्चात् सब ग्रन्थ भर के विषयों का सूचीपत्र श्लोकों से ही कहा है। वहां जगत् की उत्पत्ति विषय के पश्चात् गर्भाधानादि संस्कार द्वितीयाध्याय में कहे हैं। इन उक्त दोनों विषयों के बीच ही सत् युगादि की व्यवस्था, पाप-पुण्य का न्यूनाधिक उपयोग, ब्राह्मणादि वर्णों के कर्म और ब्राह्मण वर्ण की विशेष प्रशंसा इत्यादि कथन प्रकरण विरुद्ध हैं। और सूचीपत्र में लिखे विषयों से बाह्य वा पृथक् हैं, इससे प्रक्षिप्त हैं ऐसा अनुमान होता है। इस समय वर्तमान पुस्तकों में ११९ (एक सौ उन्नीस) श्लोक छपे हुए मिलते हैं। और पाठान्तर रूप श्लोक इनसे भिन्न हैं। और वे किन्हीं-किन्हीं पुस्तकों में मिलते हैं, इससे ही उनका नाम पाठान्तर रखा गया। तिससे अनुमान होता है कि वे पाठान्तर रूप श्लोक वा वाक्य शीघ्र थोड़े काल से मिलाये गये हैं। और जो बहुत काल से मिलाये गये वे सब पुस्तकों में मिल जाने से सर्वत्र प्राप्त होते हैं अर्थात् जो वस्तु किसी में मिलाया जाता है, वह काल पाकर उसके सर्वांश से सम्बद्ध हो जाता है।
इस प्रथमाध्याय के प्रारम्भ में १३ श्लोक तो निर्विघ्न हैं। अर्थात् बत्तीसवें श्लोक को तेरहवें के आगे चौदहवां रखना चाहिये, ऐसा विचार ठीक जान पड़ता है। इस श्लोक पर मेधातिथि आदि सब भाष्यकारों ने जो अर्थ किया है वह वेदादि शास्त्रविपरीत और तुच्छ है। यह स्पष्ट जान पड़ता है [यह बात मेरे कहने मात्र से नहीं किन्तु जो कोई उस अर्थ को सुनेगा वही ऊटपटांग कहेगा कि ब्रह्मा ने अपने शरीर को बीच से चीर के दो टुकड़े किये उनमें एक से पुरुष और दूसरे से स्त्री हुई। भला किसी पुरुष के शरीर को बीच से चीर देने से स्त्री-पुरुष दो हो जावें यह सम्भव है ? यदि ऐसा हो सकता हो तो जो पुरुष स्त्रियों के बिना दुःखी हैं, जिनको स्त्री नहीं मिलती, वे अपने शरीर को चीर डालें तो उसी शरीर से स्त्री भी निकल आवे। विचार कर देखिये तो चीरने से वह पुरुष भी मर जावेगा। दो होना तो पृथक् रहा वहां एक भी रहना असम्भव है] वेदादि शास्त्रों में सर्वत्र ही एक परमेश्वर से सब सृष्टि उत्पन्न हुई, ऐसा लिखा है। जिससे पुरुष हुए उसी से सब स्त्रियां भी उत्पन्न हुईं, किन्तु स्त्री-पुरुष रूप दो भेद बनाने के लिये किसी देह- धारी मनुष्य के दो खण्ड करना उचित नहीं। कदाचित् पुरुष के दो खण्ड होने से स्त्री-पुरुष का भेद सिद्ध हो जावे। (यद्यपि यह असम्भव है तो भी अभ्युपगम सिद्धान्त से मान लो कि यह ऐसा हो) तो भी पशु-पक्षी आदि में स्त्री भेद कैसे होगा ? क्या वहां भी किसी पशु आदि के दो खण्ड कर स्त्री-पुरुष भेद मानना चाहिये ? देखो ! अथर्ववेद में१ लिखा है कि “देव- विद्वान् पुरुष कर्म- प्रधान, पितर- दीर्घदर्शी, बहुश्रुत, साधारण मनुष्य तथा गानविद्या में प्रवीण पुरुष और स्त्री ये सब उसी नित्य निराकार परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं।” यहां स्पष्ट अप्सरस् शब्दवाच्य स्त्रियों की उत्पत्ति परमेश्वर से हुई लिखी है। किन्तु यहां किसी पुरुषविशेष के दो टुकड़ों से उत्पत्ति नहीं है। इस प्रकार वेदों में सैकड़ों प्रमाण प्राप्त होंगे, जिनके द्वारा साक्षात् परमात्मा से ही भोग्य-भोक्तारूप स्त्री-पुरुष दोनों की निरन्तर उत्पत्ति सिद्ध हो जायेगी। अर्थात् पुरुष के टुकड़ों से वेदों में कहीं भी स्त्री-पुरुष के भेद की उत्पत्ति नहीं है। तथा यह अर्थ असम्भव भी है कि जो एक पुरुषशरीर के दो खण्ड करने से स्त्री-पुरुष हो जावें। क्या सिर की ओर से लम्बाई में दो खण्ड किये वा चौड़ाई में ? यदि लम्बा-लम्बा बीच से शरीर चीर दिया तो एक आंख, एक कान, एक बांह और एक गोड़े वाला पुरुष वा स्त्री होने चाहिये! यदि बीच नाभि वा कटिभाग से दो टुकड़े किये गये हों तो नीचे वा ऊपर के ही अवयवों वाला एक होता सो तो दीखता नहीं, इत्यादि कारणों से उपहासयोग्य होने से यह अर्थ अग्राह्य है। और सत्य अर्थ यह है- किसी प्रकार विकारी हुए तन्मात्र और विषयरूप से वृद्धि को प्राप्त, सब स्थूल वस्तुओं का पूर्वरूप कार्यकारण के मध्य में अवस्थित प्रकृति के कार्यरूप अपने देह को परमेश्वर ने दो भाग करके आधे से पुरुष और आधे से स्त्री को बनाया और स्त्री में इस सब ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया अर्थात् जड़ चेतन प्रत्येक पदार्थ में स्त्री-पुरुषरूप दो प्रकार का भेद किया। पुरुष में वीर्य छोड़ने की शक्ति तथा कठिनता दृढ़ और प्रबल शक्ति रखी गयी तथा स्त्री में गर्भधारणशक्ति, कोमलता और निर्बलता रखी गयी। इसीलिये स्त्री को अबला भी कहते हैं। यह अर्थ सम्भव वेदानुकूल और गम्भीरता युक्त भी है। ऐसा अर्थ होने पर वह श्लोक स्थान भ्रष्ट अर्थात् जहां रखना चाहिये वहां नहीं है। क्योंकि सब वस्तु की विशेष रचना से पूर्व ही ऐसा श्लोक होना चाहिये, पीछे ब्राह्मणादि चेतन वा जड़ की सृष्टि कहने में ब्राह्मणी आदि उस-उसकी सम्बन्धिनी स्त्री की रचना भी आ जायेगी। यह बात प्रश्नोपनिषद् में रयि-प्राण और चन्द्र-सूर्य शब्दों से स्पष्ट दिखायी है। यहां भी ऐसा मानने पर ही उसके अनुकूल होगा। और ठीक भी ऐसा ही है, जो विशेष रचना से पूर्व ही स्त्री-पुरुषरूप भोग्यभोक्तृशक्तियों की वस्तुमात्र के सब कारण में ही भेद कल्पना करनी चाहिये ऐसा ही प्रश्नोपनिषद् में भी कहा है।
इस प्रकार यहां सब भाष्यकारों का भ्रम ही प्रतीत होता है। इस गूढ़ और गम्भीर शास्त्र के अर्थ में राघवानन्द भाष्यकार की पूर्णतः नहीं किन्तु कुछ थोड़ी बुद्धि चली है। इस सब कथन से सिद्ध हुआ कि सृष्टिप्रक्रिया में १३ (तेरहवें) श्लोक के आगे इस बत्तीसवें (द्विधा कृत्वा०) श्लोक को रखा जावे तो अनुचित नहीं जान पड़ेगा किन्तु ठीक सग्त जान पड़ेगा यह मेरी सम्मति है।
(द्विधा कृत्वा०) इस बत्तीसवें श्लोक के पश्चात् अर्थात् “तपस्तप्त्वा०” यहां से लेकर “जग्मम्॰” यहां तक पढ़े गए नौ श्लोक (३३-४१) प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। जैसे एक देश में बहुत राजा नहीं हो सकते वैसे सृष्टिकर्त्ता भी अनेक नहीं हो सकते। अर्थात् इन नव श्लोकों में कई सृष्टिकर्त्ता दिखाये हैं सो ठीक नहीं। वेदों में देवादि रचना भी साक्षात् परमात्मा से ही दिखायी गयी है, किन्तु अनेक मनुओं से नहीं, इसमें विशेष विचार वहां ही लिखा जायेगा, जहां वे पद्य पढ़े हैं।
आगे इक्यासीवें श्लोक से लेकर “दानमेकं कलौ युगे०” इस श्लोक पर्यन्त छह श्लोक प्रक्षिप्त हैं। क्योंकि सृष्टि प्रकरण में सत् युगादि में होने वाले धर्म की न्यूनाधिक व्यवस्था करना प्रकरणानुकूल नहीं हो सकती। इससे एक तो प्रकरण विरुद्ध है। द्वितीय किसी समयविशेष में सर्वथा धर्म वा अधर्म ही नहीं ठहर सकता, क्योंकि वे दोनों प्रकाश और अन्धकार के तुल्य सापेक्ष हैं। यदि प्रकाश कोई वस्तु न हो तो किसको अन्धकार कहें। जैसे शीत के अभाव में उष्ण का और उष्ण के अभाव में शीत का कोई वस्तु ठहरना असम्भव है। इसी प्रकार कृतयुग में भी अधर्म की स्थिति अवश्य माननी चाहिये। तथा तीसरे वेदों में भी “सौ वर्ष देखें। सौ वर्ष आयु वाला पुरुष होता है” इत्यादि प्रमाण हैं। वे सब कलियुग के लिये ही हों यह नहीं हो सकता। ऐसा हो तो अन्य युगों के आयु की भी वेद में व्यवस्था होनी चाहिये। और यह कलियुग के लिये आयु है ऐसा नहीं लिखा, इससे सामान्य कर यह सब युगों के लिये है, यही सत्य जानो। इस कारण वेद से विरुद्ध होने से भी उक्त श्लोक प्रक्षिप्त हैं, यह मेरा विचार है।
आगे सत्तासीवें श्लोक से लेकर एकानवें (८७-९१) श्लोक पर्यन्त पांच श्लोकों में दशमाध्याय के “ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था०” इत्यादि श्लोकों के साथ किसी प्रकार पुनरुक्ति प्रतीत होती है, परन्तु वह समाधान करने योग्य है। क्योंकि यहां प्रथमाध्याय में ब्राह्मणादि के कर्मों का विभाग है अर्थात् सृष्टि के आरम्भ में अपने-अपने कर्म में सब वर्णों को युक्त करना ही प्रयोजन है। इस ब्राह्मणादि के कर्मविभाग का सृष्टिप्रक्रिया के साथ सम्बन्ध है, ऐसा मानकर प्रथमाध्याय में वर्णन है। तथा ब्राह्मणादि वर्णों को आपत्काल में कैसे जीविका करनी चाहिये, यह आशय दिखाने के लिये कर्मों का अनुवाद करके दसवें अध्याय में वर्णन है। इस प्रकार पुनरुक्ति दोष नहीं जान पड़ता।
आगे चौरानवें-पिच्यानवें (९४-९५) दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि इन दोनों की इकत्तीसवें और तिरानवें श्लोक के साथ पुनरुक्ति भी आती है, और चौरानवें का यह “सर्वस्यास्य च गुप्तये” अंश भी सत्तासीवें (८७) श्लोक के साथ पुनरुक्त होने से प्रक्षिप्त है। तथा ब्राह्मण के मुख से देवता और पितृलोग हव्य-कव्य खाते हैं यह भी ठीक नहीं, क्योंकि अन्य के मुख से अन्य नहीं खा सकता। होमने योग्य पदार्थ जो सूर्यादि देवों को प्राप्त होते हैं, वे ब्राह्मण के मुख द्वारा नहीं, किन्तु अग्नि मुख से प्राप्त होते हैं। अर्थात् अग्नि में होमा गया द्रव्य प्रकारान्तर से प्रदेशान्तर को प्राप्त होता है, यह न्याय से सिद्ध है। क्योंकि ब्राह्मण के द्वारा किया गया भोजन किसी प्रकार से मेघमण्डल में जाता हो, यह नहीं कह सकते। इसलिये अनुमान से जान पड़ता है कि अन्य के भोजन की प्रतिक्षण तृष्णा रखने वाले भोजनभट्ट उदरम्भर नाममात्र के ब्राह्मणों ने ही ऐसे श्लोक बनाकर मिलाये हैं। केवल तिरानवें (९३) श्लोक में यथोचित प्रशंसा ब्राह्मण की की गई है।
तथा अठानवें से लेकर एक सौ एक (९८-१०१) पर्यन्त प्रक्षिप्त हैं। उन श्लोकों का एकदेशी होना तो प्रसिद्ध ही है। इन श्लोकों में अनुचित, पुनरुक्त, असम्बद्ध, पक्षपात वा स्वार्थपरक ब्राह्मण वर्ण की प्रशंसा है, जिससे ये भी चारों श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। इन पर विशेष विचार वहीं भाष्य में होगा। तथा एक सौ दो श्लोक से लेकर एक सौ सात (१०२-१०७) श्लोक पर्यन्त निष्प्रयोजन वा अल्पप्रयोजन परक श्लोक हैं। तथा किसी प्रकार असम्बद्ध, पक्षपातयुक्त और वेद से विरुद्ध तथा आत्मश्लाघा दोष वा अत्यन्त प्रशंसारूप दोष से युक्त हैं, इस कारण तुच्छ होने से पीछे किन्हीं स्वार्थियों ने मिलाये हैं, ऐसा अनुमान होता है।
आगे एक सौ सात से लेकर एक सौ दश (१०७-११०) पर्यन्त चार श्लोक चतुर्थाध्याय के १५५,१५६ श्लोकों के साथ पुनरुक्त जान पड़ते हैं। तो भी चतुर्थाध्याय के उक्त दो श्लोकों पर सबसे पहले भाष्यकर्त्ता मेधातिथि का भाष्य नहीं मिलता, तिससे अनुमान होता है कि मेधातिथि के भाष्य करने के समय में वे दोनों श्लोक चतुर्थाध्याय में नहीं थे। यदि भाष्य किया होता तो क्यों नहीं मिलता। इससे प्रथमाध्याय के आचारप्रतिपादक चारों श्लोक प्रक्षिप्त नहीं, ऐसा जान पड़ता है। आगे एक सौ ग्यारह श्लोक से लेकर सब ग्रन्थ का सूचीपत्र कहा गया है, उसमें कुछ विरोध नहीं है। इस प्रकार इन दोनों प्रकार के मिलाकर एक सौ उन्नीस श्लोक इस प्रथमाध्याय में मिलते हैं। उनमें उक्त प्रकार से मेरी सम्मति से प्रक्षिप्त समझे गये यदि छब्बीस (२६) श्लोक प्रक्षिप्त ठहरें तो शेष तिरानवें श्लोक शुद्ध ऋषिकृत मानने चाहियें।