ओउम
मन को चेतना बुद्धि से मिलती है
डा.अशोक आर्य
मानवीय मन अपार शक्तियों का भंडार है | मानव जो भी कार्य करता है मन के ही आदेश से करता है | मन से ही आदेशित कर्मेन्द्रियाँ गतिशील होकर सब कार्यों को संपन्न कराती है | मन के बिना संसार में किसी का कोई भी कार्य संपन्न नहीं हो सकता | मन प्रतिक्षण अनेक प्रकार का विचार विमर्श करता ही रहता है | इस के परिणाम स्वरूप जो भी निष्कर्ष उसे मिलता है ,उस कार्य को करने का नर्देश वह अपनी इन्द्रियों को देता है तथा इन्द्रियां अपने कौशल से उस बनाई गयी योजना को संपन्न करने का कार्य करती है | मन यदि उतम है तो कार्य का परिणाम भी उतम होता है तथा मन के कलुषित होने से कार्य भी बुरे ही होते हैं | अत: मन में चेतना का होना आवश्यक है | मन की चेतना का स्रोत बुधि होती है | बुद्धि ही मन को चेतना देती है | इस तथ्य को ऋग्वेद के मन्त्र में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है :-
इंद्र यस्ते नवीयसीं , गिरं मंद्रामजीजनत |
चिकित्विन्मनसं धियं,प्रतनामृतस्य पिप्युइषम || ऋग्वेद ८.९५.५ ||
हे सर्वश्क्तियों व एश्वर्य से युक्त परमात्मन ! जो व्यक्ति तेरे लिए अति नवीन व मनोरम विधि से स्तुति करता है , उसको प्राचीन व सत्य से परिपुष्ट तथा मन को चेतना देने वाली बुद्धि दो |
इस मन्त्र के आधार पर बुद्धि के दो गुण होते हैं :-
१ बुद्धि से मन प्रेरित होता है : –
२) बुद्धि ऋत से पुष्ट होती है :-
मानवीय मन किसी भी समय खाली नहीं बैठता | यह प्रतिक्षण कुछ नया खोजने के लिए अपने चारों और चक्र लगाता रहता है , सब और घूमता रहता है | दिन के प्रकाश में तो मन घूमता ही है , सब दृश्य देखता ही है , रात्रि के अँधेरे में भी यह मन बहुत कुछ देखने की शक्ति से सम्पन्न है | यहाँ तक कि जब हम सौ रहे होते हैं तब भी मन अपने कार्य में लगा रहता है तथा दूर दूर तक धूमता रहता है , भ्रमण करता रहता है | इस भ्रमण से, घूमने से मन अनेक अवधारणायें कुछ करने के लिए एकत्र कर लेता है | फिर मनन व चिंतन से जो वह निष्कर्ष निकालता है ,जो वह निर्णय लेता है ,उसे करने का आदेश अपनी इन्द्रियों को देता है | मन से आदेशित व प्रेरित इन्द्रियां मन के वश में रहती हुयी निरंतर मन से दिशा निर्देश लेते हुए उस कार्य को संपन्न करने के लिए अग्रसर हो जाती हैं ,क्रियाशील हो जाती हैं , प्रयास आरम्भ कर देती हैं, पुरुषार्थ करने लगती है तथा तब तक कार्य में व्यस्त रहती हैं जब तक उस कार्य को संपन्न नहीं कर लेती | इस सब से यह निष्कर्ष निकलता है कि सब प्रकार के संकल्प विकल्प करने का कार्य मन ही करता है |
मन सदा संकल्प विकल्प करता रहता है | यह मन का मुख्य कार्य है | संकल्प से ही मानव में विवेक से परिपूर्ण क्रियाशीलता आती है | विवेकपूर्ण क्रियाशीलता से ही कर्तव्य तथा अकर्तव्य का बोध होता है | अत: ग्राह्य तथा अग्राह्यता की विवेचना संकल्प का कार्य है | इस के विपरीत अवस्था में संकल्प अनिच्छा की स्थिति में ले जाता है | विकल्प ही है जो मन को अपने तर्क वितर्क में फंसा लेता है | यदि मन को बुद्धि प्रेरित न करे तो मन कुछ भी निर्णय नहीं कर सकता | मन जब अनिश्चय में होगा तो किसी कार्य के संपन्न होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता | मन का निर्णय ही तो कार्य को सम्पन्नता की और ले जाता है | जब मन कोई निर्णय लेने की स्थिति में ही नहीं है तो कार्य आरम्भ ही नहीं हो पावेगा, उसकी सम्पन्नता तो बहुत दूर की बात है | अत: किसी भी कार्य के सम्बन्ध में फंसे मन को किसी निश्चय तक पहुँचाने का कार्य, संपन्न करने की और ले जाने का कार्य तथा निर्णयात्मक ज्ञान से प्रबुद्ध करने का कार्य बुद्धि का होता है | इस कारण बुद्धि को मन का नियंता भी कहा गया है | मन की सब प्रेरणाओं का आधार बुद्धि को ही स्वीकार किया गया है | जब तक मन बुद्धि का सहारा नहीं लेता, तब तक वह विचार विमर्श, तर्क वितर्क में फंसे हुए कोई भी निर्णय नहीं ले पाता, इस उलझन में ही उलझा रहता है , किन्तु बुद्धि का सहयोग, सहारा मिलते ही मन कुछ भी निर्णय लेने में सक्षम हो जाता है तथा वह तत्काल निर्णय ले कर अपनी इन्द्रयों को गतिशील कर कर्म में लगा देता है ,जिसके परिणाम स्वरूप वांछित कार्य सफलता पूर्वक संपन्न होता है | इस सब से यह बात स्पष्ट होती है, यह तथ्य सामने आता है की मन कि प्रेरणा का आधार बुद्धि ही है |
बुद्धि के भी यह मन्त्र दी तत्व बताता है : –
१) वर्धक
२) नाशक: –
बुद्धि के वर्धक तत्व को ऋत कहते हैं तथा अनरत को नाशक कहते हैं | ऋत तत्व के अंतर्गत सत्य , सदाचार,सुशीलता आदि आते है | इससे भी स्पष्ट होता है कि अच्छाई व सत्य के प्रचार व प्रसार का कार्य ऋत तत्व करता है | यह सत्य का प्रचारक है | सदाचार का सर्वत्र प्रसारक भी ऋत ही है तथा संसार में जितने भी सुशीलता युक्त कार्य दिखाई देते हैं वह भी ऋत तत्व के कारण ही होते हैं | इस तत्व से बुद्धि को पुष्टि मिलती है | पुष्ट बुद्धि बड़े बड़े अच्छे कार्यों को सम्पन्न करने की प्रेरणा मन को देती है | बुद्धि से प्रेरित यह मन इन कार्यों को संपन्न कर हर्षित होता है | इस के उल्ट जितने भी पापाचार हैं, जितने भी क्रोध हैं , जितने प्रकार के भी मोह हैं तथा जितने प्रकार के भी मादक पदार्थ अथवा द्रव्य आदि हैं , यह सब इसके अर्थात बुद्धि के नाशक तत्व हैं | अत: मन्त्र निर्देश देता है कि हम अनृत को छोड़ कर अछे कार्यों में लगें | ऋत का परिणाम भी ऋत के अनुसार उतम ही निकलेगा | यदि हम उत्तमता को पाना चाहते है, यदि हम अच्छे कार्य कर अपना यश व कीर्ति को बढ़ा केर उतम धन एश्वर्य के स्वामी बनना चाहते है तो सदा ऋत के अनुकूल ही कर्म करने चाहियें |
डा. अशोक आर्य
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शरीर वाली माँ एक बच्चे को जन्म दे कर उसके सारे कार्य करती है, जबतक एक बच्चा पढ लिख कर अपने पैरो पर खडे रहकर अपने बलबूते पर सही सही जीना सीख ले। पर एक माँ बिना शरीर वाली जीससे यह शरीर चलता फिरता और सारे कर्म जीससे हो पा रहे है। हरेक जीव और मनुष्य शरीर की वह है सारे जीवो की शक्ति। जो अच्छे बूरे इन्सान सभी के पास हो सकती है शक्ति। पर बिना शरीर वाला बाप सबके पास नहीं हो सकता वह एक समय पर एक ही के पास हो सकता है, वह है ईश्वर, आत्म ज्ञान। शक्ति शरीर में मनुष्य सारे शरीर मे कही भी अनुभव कर सकता है। पर ईश्वर अनुभूति उसे सिर्फ और सिर्फ संयम नियम, त्याग समर्पण, प्राणायाम होने के बाद निर्विचार स्थिती में ईश्वर अनुभूति होती है जीससे सारे ब्रह्मांड के खेल जारी है, जो अजन्मा है, जो अकाल पुरुष, स्त्री भी है। नोंध: ईश्वर को शरीर नही है ईश्वरसे शरीर और सारा कुछ है तो लिंग भेद का प्रश्न नही उठता है। जब भी कीसी मनुष्य शरीर में जीव को ईश्वर अनुभूति हूई है तब वह असल मे वास्तव वर्तमान मे ही रहता है और सबका सहारा छोड, सभी कुछ जीससे है उस ईश्वर परायण हो कर अमर हो जाता है। ईश्वर वही है जीसकी सत्ता के बगैर पता भी नही हिलता। धन्यवाद।