मन की दृढ़ता -रामनाथ विद्यालंकार

मन की दृढ़ता  -रामनाथ विद्यालंकार

 

तू कुटिल है, हवियों का निधन है

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता विष्णुः । छन्दः निवृत् त्रिष्टुप् । अहृतमसि हविर्धानं दृहस्व मा ह्वार्मा ते यज्ञपतिर्षीत् । विष्णुस्त्वा क्रमतामुरु वातायार्पहतरक्षो यच्छन्तां पञ्च॥

-यजु० १।९ |

हे मेरे मन! तू (अहुतम् असि) कुटिलतारहित है, (हविर्धानम्) हवियों का निधान है, (दूंहस्व) तू स्वयं को दृढ़ कर, (मा ह्वाः) भविष्य में भी कभी कुटिल मत हो। (मा ते यज्ञपतिः ह्वार्षीत्) न ही तेरा यज्ञपति आत्मा कुटिल होवे । (विष्णुः) विष्णु परमेश्वर (त्वा क्रमताम्”) तुझे अग्रगामी करे। (वाताय) गति के लिए तू (उरु) विशाल हो। तुझसे (रक्षः) राक्षसवृत्ति (अपहतं) नष्ट हो जाए। (पञ्) अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये पाँचों व्रत, तुझे (यच्छन्ताम्) नियन्त्रण में रखें।

यदि मन कुटिल है तो मनुष्य कुटिलता के कार्यों में लगेगा और यदि मन पवित्र है तो उसके कार्य भी पवित्र होंगे। जिसने साधना द्वारा मन को पवित्र बना लिया है, ऐसा मनुष्य मन्त्र में मन को सम्बोधन कर रहा है।

हे मेरे मन! तू कुटिलता से रहित हो गया है। तू हविर्धान है, हवियों का निधान है। देह में चक्षु, श्रोत्र आदि जो भी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, वे सब अपने दृष्ट, श्रुत आदि हव्य की आहुति पहले मन में देती हैं, तभी मनुष्य का आत्मा देखना, सुनना आदि व्यापारों को करता है। यदि मन देखने, सुनने आदि में समाहित नहीं है, या यों कहें कि आँख से देखे, कान से सुने, जिह्वा से चखे द्रव्य की हवि यदि मन में नहीं पड़ रही है, तो आत्मा ज्ञानेन्द्रियों के प्रवृत्त होते हुए भी ज्ञान ग्रहण करने में असमर्थ रहता है। अतएव मन को हविर्धान कहा गया है।

हे मेरे मन ! तू सदा दृढ़ बना रह। यदि तू ही दृढ़ता को त्याग कर विचलित होने लगेगा, तो सब इन्द्रियाँ भी विचलित हो जायेंगी । तू दृढ़ रह कर वैसे ही इन्द्रियों को साधे रह सकता है, जैसे उत्तम सारथि रथ के घोडों को साधे रहता है। हे मेरे मन ! जैसे तू इस समय । अकुटिल एवं पवित्र है, वैसे ही भविष्य में भी बने रहना। ऐसा न हो कि मेरी अब तक की सब साधना व्यर्थ हो जाए

और तू कुछ ही दिन अकुटिल रह कर कुटिल मनुष्यों के कुटिल विचारों की सङ्गत से फिर कुटिलता पर चल पड़े। यदि तू सदा अकुटिल बना रहेगा, तो मेरे यज्ञपति आत्मा के पास भी कालुष्य और कुटिलता फटकने नहीं पायेगी तथा मेरा

आत्मा सदा पवित्र ज्ञान और पवित्र कर्मों से ही युक्त रहेगा। है मेरे मन! सर्वान्तर्यामी विष्णु प्रभु, जो तेरे अन्दर भी व्याप्त हैं, तुझे सदा अग्रगामी बनाये रखें और उनसे प्रेरित होकर तू सदा मेरे जीवन को उन्नति की दिशा में ही अग्रसर करता रह।

हे मेरे मन ! मुझे वेद ने ‘दूरंगम’ अर्थात् दूर-दूर तक जानेवाला या दूरदर्शी कहा है। तू विशाल गति करता रह, ऊँची उड़ानें लेता रह, मुझे ऊध्र्वारोहण के लिए प्रेरित करता रह। तू ऐसा उद्योग कर कि यदि कोई राक्षसी वृत्तियाँ मेरे पास आने लगें, तो वे तुझसे टकरा कर चूर-चूर हो जाएँ। तू अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँचों व्रतों को धारण किये रख। इनके नियन्त्रण में रह कर तू मेरे जीवन को सदा पवित्र ही पवित्र बनाती चल ।

मन की दृढ़ता  -रामनाथ विद्यालंकार

 

पाद-टिप्पणियाँ

१. हृ कौटिल्ये-क्त प्रत्यय। ‘हु ह्वरेश्छन्दसि’ से धातु को हु आदेश।

२. दृहि वृद्धौ, भ्वादिः ।।

३. हृ कौटिल्ये, लुङ्, अडागमाभावे।

४. क्रमु पादविक्षेपे, भ्वादिः ।

५. वात सुखसेवनयोः गतौ च, चुरादिः ।

६. (यच्छन्ताम्) निगृह्वन्तु-द०भा० | यम उपरमे, धातु को यच्छ आदेश।

मन की दृढ़ता  -रामनाथ विद्यालंकार

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