प्रत्येक व्यक्ति सोचने समझने के लिए स्वतंत्र हैं . वह अपनी बुद्धिमत्ता के अनुसार परिस्थिति के आंकलन के अनुसार निर्णय लेकर कार्य करता है . एक वर्ग ऐसा भी होता जो किसी अन्य के विचारों को बिना सोचे समझे अनुपालन करना आरम्भ कर देते हैं वहीं कुछ किसी न किसी कारणवश उनकी बातों से सहमत नहीं होते . यह मानव जाती का स्वभाव और व्यवहार में प्रदर्शित होता है .
यही कारण है की महापुरुषों के जहाँ अनुगामी लोगों की पचुरता होती है वहीं ऐसे लोगों का समूह भी होता है जो उनकी बातों से सहमत नहीं होते. महापुरुष विरोधियों की बातों को सुनने और उनकी कटाक्षों को सहने की सामर्थ्य रखते हैं और इनसे विचलित नहीं होते उनका यही आचरण उन्हें दूसरों से भिन्न और महान बना देता है .
स्वामी दयानन्द भी इसके अपवाद नही थे . महर्षि दयानन्द जी के पूना प्रवास के दौरान वहां के सम्माननीय लोगों ने ऋषी के सम्मान में एक जूलूस ऋषि दयानन्द को हाथी पर बिठा कर अश्व और गाजे बाजे के साथ निकाला . ( देवेन्द्र बाबू द्वारा रचित जीवन चरित्र )
वहीं पौराणिक पक्ष ने इसके विरोध में दूसरा जूलूस निकाला और जिसमें एक गधे को सजाकर उस पर गधानंद लिख दिया .
पूना से प्रकाशित लोक हितवादी पत्रिका के फरवरी १८८३ के अंक में सम्पादक ने इस घटना के बारे में ऋषि दयानन्द के लिए लिखा है :
मान अपमान में समबुद्धि ऋषि दयानन्द :
“जैसे राजा की सवारी का हाथी गाँव के उपद्रवी कुत्तों के भौंकने से तनिक भी नहीं डरता वैसे ही हमारा यह बड़ी प्रसंशा के योग्य प्रबल वीर उपर्युक्त लोगों की असंख्य कुचेष्टाओं से कभी तनिक भी नहीं डगमगाया
ऐसे जगतपूज्य महानुभाव के साथ हमारे पूना के समान अत्यंत सभ्य नगर में कभी कोई ऐसा छल नहीं करना चाहिए था परन्तु कुटिल स्वार्थी और मत्सरी लोगों ने अपने साथ इस नगर को भी कलंकित कर दिया .
खैर ! जहाँ उत्तम लोग रहते हैं वहां चांडालों के घर भी होते हैं . इस लोकोप्ती से यदि हम अपने मन को संतोष भी करा लें तो भी यह बात बुरी हो गयी . इसलिए यहाँ के बहुत से सज्जन और विद्वान लोगों ने स्वामी जी के पास जाकर बहुत खेद व्यक्त किया परन्तु धन्य वह तपोनिधि ! जिसके धैर्य , गाम्भीर्य और शौर्य में तनिक भी अंतर पड़ा हुआ किसी के देखने में नहीं आता .
ऋषि दयानन्द का चरित्र, विद्वता उनका आचरण था ही अद्वितीय जिसे देखकर सभी मंत्रमुग्ध हो जाते थे .आलोचनाओं का ऋषी दयानन्द के व्यवहार उनके कार्य पर क्या प्रभाव पढ़ा पूना से प्रकाशित लोक हितवादी पत्रिका के फरवरी १८८३ के अंक में सम्पादक का लेख और ऋषी दयानन्द के लिए प्रयुक्त उनके शब्द और सम्पादक की इस घटना के उनके शहर में घटित होने को लेकर ग्लानी स्वयं वर्णन कर रही है .इस बारे में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं .
आवश्यकता इस बात पर विचार करने की है कि आज ऋषि दयानन्द को लेकर जब एक वर्ग अपमान जनक शब्दों का प्रयोग करे तो हमारा व्यवहार कैसा हो !. क्या हमें ऋषी दयानन्द के व्यवहार आचरण से शिक्षा ग्रहण करनी है या निरंकुश आतताइयों के अनुकूल व्यवहार करना हमारा ध्येय होना चाहिए .
हमारा व्यवहार उन आदर्शों उन सिद्धांतों की कसोटी पर हो जिनका हमारे पूर्वजों हमारे सम्माननीय विभूतियों ने अनुगमन किया है .