कर्मानुसार वैदिक वर्ण व्यवस्था भाग – १ : विपुल प्रकाश आर्य

 

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शास्त्रों में गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन करने वाले श्लोक अथवा मंत्र,जिनका गलत अर्थ लगा कर पाखण्डी जाति प्रथा का समर्थन करते हैं (भाग १):-

 

प्रिय पाठकगण, इस लेख शृङ्खला को शुरु करने के पीछे लेखक का उद्देश्य है आपके सामने वेदादि सत्य शास्त्रों से ऐसे प्रमाणों को प्रस्तुत करना जो कि स्पष्ट रूप से गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते हैं और साथ ही यह भी दिखाना कि किस प्रकार जातिवादी पाखण्डी उनका गलत अर्थ करके  अपना मतलब साधते  हैं। जहां तक ईशवर प्रदत्त चारों वेदों का सवाल है,उसके मन्त्रों का गलत अर्थ विगत ३००० वर्षों में अनेक लोगों ने अज्ञानवश अथवा स्वार्थसिद्धी के लिए किया है और जहां तक ऋषि मुनियों द्वारा रचित ग्रन्थों जैसे मनुस्मृति इत्यादि का सवाल है वहां पर तो श्लोकों का गलत अर्थ करने के साथ साथ कुछ कुछ नये श्लोक मनमाने तरीके से अपना मतलब साधने के लिए मिला दिये हैं। ऐसे नये मिलाए गये श्लोकों को प्रक्षिप्त श्लोक कहा जाता है। इस लेख शृङ्खला में ऐसे श्लोकों का सही अर्थ किया जाएगा जिनके गलत अर्थ से जातिवाद की सिद्धी की जाती है तथा प्रक्षिप्त श्लोकों को भी युक्तिपूर्वक प्रक्षिप्त सिद्ध किया जाएगा।

मनुस्मृति में गुणकर्मानुसार वर्ण व्यवस्था की सिद्धी करने वाला ऐसा ही एक श्लोक निम्नलिखित है:-

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राहमणश्चैति शूद्रतां।

क्षत्रियाज्जात्मेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। ।  (मनु १०:६५)

इस श्लोक का सही अर्थ इस प्रकार है :- शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र हो सकता है,इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य की सन्तानों के विषय में भी समझना चाहिए।

इस श्लोक से स्पष्ट रूप से यह विदित होता है कि ब्राहमण की सन्तान अपने गुण कर्मों के आधार पर शूद्र हो सकती है और शूद्र की सन्तान भी अगर ब्राह्मण बनने के योग्य हो तो ब्राह्मण हो जाएगी। यही नहीं अगर कोई शूद्र स्वयं भी ब्राह्मणत्व के योग्य हॊ तो वह ब्राहमण हो जाएगा। उसी तरह अगर कोई ब्राहमण स्वयं भी शूद्र बन जाने के योग्य कर्म करेगा तो शूद्र हो जाएगा। और अगर ब्राहमण का शूद्र बनना और शूद्र का ब्राहमण बनना सम्भव है तो फ़िर क्षत्रिय अथवा वैश्य बनना क्यों असम्भव हो सकता है। ठीक ऐसा ही क्षत्रिय अथवा वैश्य के घर पैदा हुई सन्तानों के बारे में समझा जाना चाहिए।

इस श्लोक से स्पष्ट रूप से गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था का समर्थन है। मगर जातिवाद के समर्थक इसका गलत अर्थ निम्नलिखित तरीके से लगाते हैं:-

अगर किसी ब्राह्मण का ब्याह शूद्रा से हो और उससे कोई कन्या उत्पन्न हो और उस कन्या का ब्याह किसी ब्राहमण पुरुष से हो और फ़िर कन्या उत्पन्न हो और उसका ब्याह फ़िर एक ब्राह्मण से हो तो इस तरह से सातवीं पीढी में जो सन्तान होगी वह ब्राहमण होगी। और अगर ब्राह्मण का शूद्रा से कोई पुत्र उत्पन्न हो और उस पुत्र का ब्याह शूद्रा से हो और उनका भी पुत्र उत्पन्न हो और उसका ब्याह भी शुद्रा से किया जाए तो इस तरह से सातवीं पीढी की सन्तान शूद्र होगी। यही विधान क्षत्रिय और वैश्य के साथ भी समझना चाहिए ।

और इस अर्थ की सिद्धी के लिए उपर दिए गये श्लोक (१०:६५) से पहले एक प्रक्षिप्त श्लोक भी मनुस्मृति में मिलाया हुआ है जो कि निम्नलिखित है:-

शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातःश्रेयसा चेत्प्रजायते।

अश्रेयान्श्रेयसीं जातिं गच्छत्यासप्तमाद्युगात् ।  । (मनु १०:६४)

जिसका अर्थ वे इस प्रकार लगाते हैं:-अगर किसी ब्राह्मण का ब्याह शूद्रा से हो और उससे कोई कन्या उत्पन्न हो और उस कन्या का ब्याह किसी ब्राहमण पुरुष से हो और फ़िर कन्या उत्पन्न हो और उसका ब्याह फ़िर एक ब्राह्मण से हो तो इस तरह से सातवीं पीढी में जो सन्तान होगी वह ब्राहमण होगी।

और इसी के साथ मिला कर के अगले श्लोक (शूद्रो ब्राह्मणतामेति १०:६५) का अर्थ लगाते है कि शुद्र (ब्राह्मण से शूद्रा में उत्पन्न पुत्री को ब्राह्मण से उपर्युक्त विधि से ब्याह्ने से सातवीं पीढी में उत्पन्न पुत्र )जैसे ब्राह्मणता को प्राप्त करता है वैसे ब्राह्मण भी शूद्रता को प्राप्त करता है (अगर ब्राह्मण द्वारा शूद्रा में पुत्र हो और उसका विवाह भी शूद्रा से हो तो इस प्रकार सातवीं पीढी की सन्तान शूद्र होगी) । वैसे ही क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न पुत्र छठी पीढी में शूद्रता को प्राप्त करता है और वैश्य से शूद्रा में उत्पन्न पुत्र पाचवी पीढी में शूद्रता प्राप्त करता है इत्यादि।

यहां गौरतलब है कि प्रक्षेपक महोदय ने श्लोकों का अर्थ बिगाडने का काम बहुत ही चतुराई से किया है । मगर हम ध्यानपूर्वक दोनो श्लोकों की समीक्षा करें तो सारी कलै खुल के सामने आ जाती है।

सर्वप्रथम तो हम श्लोक संख्या १०:६५ के शाब्दिक अर्थ को देखें :-शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र हो सकता है,इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य की सन्तानों के विषय में भी समझना चाहिए।

अब हमें सर्वप्रथम ये विचार करना चाहिए कि मनु महाराज ने शूद्र अथवा ब्राह्मण किनको कहा है? अगर मनुस्मृति का अध्ययन किया जाय तो ह्म पाएंगे कि प्रथम तो शूद्र या ब्राह्मण शब्द या तो उस व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हो सक्ता है जो कि स्वयं शूद्र अथवा ब्राह्मण वर्ण का हो । दूसरा ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य अथवा शूद्र द्वारा समान वर्णों की स्त्रियों में उत्पन्न सन्तानो को भी क्रमशः  ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य अथवा शूद्र जाति से जाना जाता है(मनु १०: ५)।  यहां यह ध्यान देने योग्य है कि उपर्युक्त जातियों का आशय सिर्फ़ उपनयन संस्कार इत्यादि की आयु निर्धारण करने से है ना कि जन्म के आधार पे बालक का वर्ण निर्धारण करने से।

मगर हम १०:६५ श्लोक के जातिवादियों द्वारा लगाए गये अर्थ की समीक्षा करें तो हम पाएंगे कि “शुद्रो ब्राह्मणतामेति ” मे शूद्र का अर्थ उन्होने लगाया है ब्राह्मण पुरुष की शूद्रा स्त्री से उत्पन्न हुइ पुत्री को पुनः ब्राह्मण पुरुष को ब्याहकर और फ़िर उनकी पुत्री को पुनः ब्राह्मण पुरुष को ब्याहकर इस प्रकार सातवीं पीढी में जो सन्तान होगी । उसी प्रकार ‘ब्राह्मणश्चैति शूद्रतां ‘ मे ब्राह्मण शब्द का अर्थ उन्होने लगाया है कि ब्राह्मण पुरुष द्वारा शूद्रा स्त्री से उत्पन्न पुत्र को शूद्रा से ब्याह कर फ़िर उनसे उत्पन्न पुत्र को पुनः शूद्रा से ब्याह्कर इस प्रकार जो सातवीं पीढी में सन्तान उत्पन्न हो। अब भला शूद्र और ब्राह्मण शब्द का इतना विचित्र अर्थ ये लोग किस व्याकरण के नियम के अनुसार लगाते हैं ये तो यही लोग जानते होंगे। इसी प्रकार क्षत्रियाज्जातः का अर्थ होता है कि जो क्षत्रिय पिता के द्वारा उत्पन्न हो । मगर इस श्लोक में जातिवादी इस शब्द का अर्थ लगाते हैं क्षत्रिय द्वारा शुद्रा में उपर्युक्त विधी से उत्पन्न छठी पीढी की सन्तान ।   अब यहां विचारणीय है कि अगर छ्ठी पीढी की सन्तान को ‘क्षत्रियाज्जातः’बोलेंगे तो ५वी पीढी की सन्तान को क्षत्रिय मानना पडेगा  ।  अब जबकि जातिवादी लोग क्षत्रिय द्वारा शूद्रा में उत्पन्न पहली पीढी की सन्तान( जिसको उग्र बोला जाता है) को भी क्षत्रिय नहीं मानते हैं तो ५ वी पीढी की सन्तान को क्षत्रिय मान लेना क्या सिर्फ़ मतलब साधने वाली बात नहीं है?

ये तो थी १०:६५ नं० श्लोक के इनके द्वारा किए गये अर्थ (अनर्थ) की समीक्षा । इससे स्पष्ट हो जाता है कि ६४ वे श्लोक से ६५ वे श्लोक का दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि ६४ वे श्लोक से प्रासङ्गिक तालमेल बैठाने के लिए शूद्र,ब्राह्मण,क्षत्रिय इत्यादि शब्द का किस प्रकार व्याकरण विरुद्ध अर्थ लगाना पड रहा है। सिर्फ़ इतना ही नहीं, अपितु अगर ६४ वें श्लोक के अर्थ की भी समीक्षा करें तो हम पाते हैं कि “शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातः” यह पद तो पुल्लिङ्ग है मगर इसका प्रयोग पुरुष अथवा स्त्री पुरुष दोनो के लिए न होकर सिर्फ़ स्त्री सन्तान के लिए हुआ है। भला ऐसा विचित्र प्रकार का श्लोक परम विद्वान महर्षि मनु का कैसे हो सकता है? इससे सिद्ध हॊता है कि यह श्लोक (१०:६४)  अगले (१०:६५) श्लोक का अर्थ बिगाडने के हेतु से किसी धूर्त व्यक्ति द्वारा मिलाया गया है। अतः श्लोक संख्या  १०:६४ को प्रक्षिप्त मानना ही उचित है।

अब तक की समीक्षा से हम इस निष्कर्ष पे पहुंचे हैं कि मनु १०:६५ का जातिवादियों के द्वारा किया गया अर्थ गलत है  और उसका सही अर्थ गुण कर्मानुसार वर्ण वयवस्था का ही पोषक है जो कि इस प्रकार है :-

कि ब्राहमण की सन्तान अपने गुण कर्मों के आधार पर शूद्र हो सकती है और शूद्र की सन्तान भी अगर ब्राह्मण बनने के योग्य हो तो ब्राह्मण हो जाएगी। यही नहीं अगर कोई शूद्र स्वयं भी ब्राह्मणत्व के योग्य हॊ तो वह ब्राहमण हो जाएगा। उसी तरह अगर कोई ब्राहमण स्वयं भी शूद्र बन जाने के योग्य कर्म करेगा तो शूद्र हो जाएगा। और अगर ब्राहमण का शूद्र बनना और शूद्र का ब्राहमण बनना सम्भव है तो फ़िर क्षत्रिय अथवा वैश्य बनना क्यों कर असम्भव हो सकता है। ठीक ऐसा ही क्षत्रिय अथवा वैश्य के घर पैदा हुई सन्तानों के बारे में समझा जाना चाहिए ।

प्रिय पाठकगण हमें आशा है कि यह लेख सत्य और असत्य का विवेक करने में आपके लिए सहायताप्रद सिद्ध होगा। त्रुटियों के लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं.

अगले भाग में फ़िर इसी तरह एक नये श्लोक,सूत्र अथवा मन्त्र की समीक्षा की जाएगी ।

(क्रमशः)

3 thoughts on “कर्मानुसार वैदिक वर्ण व्यवस्था भाग – १ : विपुल प्रकाश आर्य”

  1. भारत देश के पतन कारण आप जैसे कुबुद्धि लोग हैं जिन्होंने ने सब्दो का अनर्थ किया है …………. वेदो की बात करते हो ये पड कर समझने वाला विषय नहीं है इसको जानने के लिए तात्विक ज्ञान होना आवश्यक हे . उसके बगेर यही अर्थ बता सकते हो .

    1. Aapke Jaise Jatiwaadiyon ne pichale 2-3 hazaar varshon me jaatigat aarakshan vyawasthaa lakar yogyataa ka galaa jis prakaar ghota hai yah usi kaa parinaam hai ki aryawart mugalon aur angrezon ka ghulaam bana

    2. OUM..
      NAMASTE…
      AAP ‘YOGI’ NAHIN, KOI BHOG-VILAASH ME LIPT ‘BHOGI’ LAGTE HO…YAA FIR MUSALMAAN AUR ISAAI KE JUTHAN ME PALNE WAALE..!!!
      YOGI AUR ARYA KAA MATLAB SAMJHAA LKARO, KHUD VED SAMAJH ME AAJAAYGAA…ASTU…
      OUM..

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