जिज्ञासा 1- योग के आठ अंगों में जिनका ‘साधन पाद’ में उल्लेख है, छठा अंग ‘धारणा’ है। उसमें मन को शरीर के किसी एक अंग- जैसे नासिका, मस्तक आदि पर स्थिर करने की बात कही है। इसी स्थान पर आगे ध्यान, समाधि लगती है, परन्तु ‘समाधि पाद’ में सप्रज्ञात समाधि के अन्तर्गत जब वितर्क रूपी स्थिति, जिसमें पृथिवी आदि स्थूल भूतों का साक्षात्कार होता है, उसमें मन को नासिका, जिह्वा आदि अलग-अलग स्थानों पर लगाने का उल्लेख है। मेरी शंका यही है कि धारणा के समय जब एक स्थान चुन लिया है तो फिर वितर्क समाधि में अलग-अलग स्थान क्यों?
आशा है, मैं अपनी जिज्ञासा को ठीक प्रकार प्रकट कर पाया हूँ। आपसे निवेदन है कि इसका समाधान देने की कृपा करें।
– ज्ञानप्रकाश कुकरेजा, 786/8, अर्बन स्टेट, करनाल, हरियाणा-132001
समाधान– योग के आठ अंगों में धारणा छठा अंग है। धारणा की परिभाषा करते हुए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा- ‘‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।’’ इस सूत्र की व्याया करते हुए महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के उपासना प्रकरण में लिखा- ‘‘जब उपासना योग के पूर्वोक्त पाँचों अंग सिद्ध हो जाते हैं, तब उसका छठा अंग धारणा भी यथावत् प्राप्त होती है। धारणा उसको कहते हैं कि मन को चञ्चलता से छुड़ाके नाभि, हृदय, मस्तक, नासिका और जीभ के अग्रभाग आदि देशों में स्थिर करके ओंकार का जप और उसका अर्थ जो परमेश्वर है, उसका विचार करना।’’ धारणा के लिए मुय बात अपने मन को एक स्थान पर टिका लेना, स्थिर कर लेना है। टिके हुए स्थान पर ही ध्यान करना और वहीं पर समाधि का लगना होता है। इसके लिए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा- ‘‘त्रयमेकत्र संयमः’’ अर्थात् धारणा, ध्यान, समाधि तीनों का एक विषय हो जाना संयम कहलाता है। इस सूत्र पर महर्षि दयानन्द ने लिखा- ‘‘जिस देश में धारणा की जाये, उसी में ध्यान और उसी में समाधि, अर्थात् ध्यान करने योग्य परमेश्वर में मग्न हो जाने को संयम कहते हैं, जो एक ही काल में तीनों का मेल होना, अर्थात् धारणा से संयुक्त ध्यान और ध्यान से संयुक्त समाधि होती है। उसमें बहुत सूक्ष्म काल का भेद रहता है, परन्तु जब समाधि होती है, तब आनन्द के बीच में तीनों का फल एक ही हो जाता है।’’ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
धारणा+ध्यान+समाधि= संयम।
अब आपकी बात पर आते हैं, आपने जो कहा कि ‘‘……सप्रज्ञात समाधि के अन्तर्गत जब वितर्क रूपी स्थिति जिसमें पृथिवी आदि स्थूल भूतों का साक्षात्कार होता है, उसमें मन को नासिका, जिह्वा आदि अलग-अलग स्थानों पर लगाने का उल्लेख है।’’ आपकी यह बात ‘‘वितर्कविचारानन्दास्मिता…..।’’ योगदर्शन 1.17 इस सूत्र में नहीं कही गई, हाँ ‘‘विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनी।’’ योगदर्शन 1.35 इसमें कही है। इसमें वितर्क समाधि की बात नहीं, यहाँ तो मन की स्थिरता का कारण बताया है। यहाँ कहा है- नासिकाग्र आदि स्थानों पर चित्त को स्थिर करने से उत्पन्न दिव्यगन्धादि विषयों वाली प्रवृत्ति मन की स्थिति का कारण होती है।
इस सूत्र से पहले प्राणायाम का वर्णन किया हुआ है। ऋषि ने प्राणायाम को चित्त की स्थिरता का प्रमुख उपाय कहा है, अर्थात् प्राणायाम मन स्थिर करने का प्रमुख उपाय है। अब इसके आगे मन को स्थिर करने के अन्य गौण उपाय कहे हैं, उनमें यह उपाय भी है। जब योगायासी जिह्वाग्र, नासिकाग्र आदि स्थानों पर मन को स्थिर करता है, तब दिव्यरसादि की अनुभूति होती है। यह अनुभूति रूप व्यापार सामान्य न होकर उत्कृष्ट होता है। यह प्रवृत्ति मन को एकाग्र करने में सहायक होती है और साधक का अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने में विश्वास पैदा होता है और श्रद्धा पैदा होती है। तात्पर्य यह हुआ कि स्थान विशेष पर धारणा कर मन को स्थिर (एकाग्र) करना है।
वितर्क आदि समाधि सालब हैं। वहाँ स्थूल का आलबन करते हैं, अर्थात् नासिकाग्रादि का आलबन करना वितर्क कहलाता है। वितर्क समाधि एक-एक स्थान का आलबन करने से होती है। आपने जो पूछा- ‘धारणा के समय जब एक स्थान चुन लिया है तो फिर वितर्क समाधि में अलग-अलग स्थान क्यों?’ आप इस वितर्क समाधि के स्वरूप को समझेंगे तो आपको यह शंका नहीं होगी। वितर्क समाधि सालब समाधि है और वे आलबन स्थूल हैं, अलग-अलग हैं। अलग-अलग होने पर अलग-अलग स्थान धारणा के लिए चुने हैं।
धारणा के लिए भी ऋषि ने केवल एक ही स्थान निश्चित नहीं किया, वहाँ भी अनेक स्थान कहें हैं। अनेक में से कोई एक तो है, पर केवल एक नहीं है। जब दिव्य गन्ध की अनुभूति करनी है तो धारणा स्थल एक नासिकाग्र ही होता है, वहाँ स्थान बदले नहीं जाते। ऐसे ही अन्य विषयों में भी है। इसलिए जो अलग-अलग स्थान आप देख रहे हैं, वे अनेक विषयों को लेकर देख रहे हैं, जब एक ही विषय को लेकर देखेंगे तो अलग-अलग धारणा स्थल न देखकर एक ही स्थान देख पायेंगे।
नमोस्तु महाराज जी मेरा तम्बाकू खाना कैसे मुक्त होंगा।
kripya apanae sahar ke nashaa mukti sansthaan me jaaye.