मनुस्मृति विषयक आर्यसमाज तथा डॉ0 अम्बेडकर की भूमिकाओं के इस स्थूल अध्ययन के बाद एक नजर जयपुर उच्च न्यायालय में स्थापित उस मनु प्रतिमा पर भी डाल लेते हैं जिस कारण मनु, मनुस्मृति या मनुवाद विषयक चर्चा समाचार-पत्रों के माध्यम से और अधिक तीव्र स्वर में हुई है। घटना की पृष्ठभूमि निम्न प्रकार है –
2 मई 1987 को जयपुर उच्च न्यायालय के सन्निकट स्थिति चैक में तत्कालीन राष्ट्रपति आर0 वेंकटरमण के कर-कमलों से डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर की प्रतिमा का अनावरण हुआ। कहते हैं, यातायात में असुविधा होने के बहाने बहुत दिनों तक इस प्रतिमा को कोई समुचित स्थान ही नहीं मिल पाया था। तत्पश्चात् लगभग दो साल बाद जयपुर के प्रथम वर्ग के न्यायाधिकारी श्री पद्मकुमार जैन ने उच्च न्यायालय परिसर का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए मनु की प्रतिमा स्थापित करने का लिखित अनुरोध मुख्य न्यायाधीश श्री नरेन्द्र कासलीवालजी से 2 फरवरी 1989 को किया। उनकी सम्मति तथा कांग्रेस के महामन्त्री श्री राजकुमार काला और स्थानीय लाइंस क्लब की सहायता से 4 फुट ऊँची प्रतिमा बनवाई गई और उसे न्यायालय के सामने चबूतरे पर 28 जून, 1989 को स्थापित कर दिया गया।
उक्त समाचार के फैलते ही दलित समाज में प्रतिक्रिया हुई और उन्होंने विविध संगठनों की सहायता से ’मनु ˗प्रतिमा हटाओ संघर्ष समिति‘ बनाई, जो श्री रामनाथ आर्य के नेतृत्व में क्रियाशील हुई थी। 10 जुलाई से प्रतिमा हटाओ आन्दोलन शुरु हुआ। इसी बीच श्री नरेन्द्र मोहन कासलीवाल सेवानिवृत्त हुए और उनके स्थान पर श्री मिलापचन्द जैन की नियुक्ति हुई। 28 जुलाई को जोधपुर में उच्च न्यायालय के 18 न्यायाधीशों की एक बैठक हुई, जिसमें निर्णय किया गया कि मनु के सन्दर्भ में किसी भी प्रकार का वाद-विवाद निर्माण न हो, अतः मनु की प्रतिमा ही हटा दी जाए। पर शासन द्वारा इस निर्णय के क्रियान्वित करने से पहले ही बजरंग दल के धमेन्द्र महाराज और सोमेन्द्र शर्मा ने न्यायालय में उक्त निर्णय के विरुद्ध स्थगन याचिका प्रस्तुत की, जिसे न्यायाधीश श्री सुरेशचन्द्र अग्रवाल ने दाखिल कर लिया, और कालान्तर में निर्णय देते हुए कहा-’इस समस्या का हल प्रशासनिक तौर पर किया जाना चाहिए। मनु के पीछे व्यापक जन-मानस है और विविध प्रकार की महत्त्वपूर्ण मान्यताएँ हैं। इस केस में मनु प्रतिमा को यथावत् रखने के पक्ष में एडवोकेट श्री सी0 के0 गर्ग सक्रिय रहे तो ’मनु प्रतिमा हटाओ संघर्ष समिति‘ के वकील श्री भँवर बागड़ी थे। इसी बीच सौ वकीलों ने इस आशय का अर्ज दे दिया कि-मनु की प्रतिमा हटाने से मानवता का अपमान होगा। इस सन्दर्भ में आर्यसमाज नया बाँस, दिल्ली के श्री धर्मपाल आर्य, झज्जर-हरियाणा के प्रा0 डॉ0 श्री सुरेन्द्रकुमार और परोपकारिणी सभा-अजमेर के संयुक्त मंत्री प्रो0 डॉ0 धर्मवीर आदि ने मनु सम्मान को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए संरक्षणात्मक मोर्चे की भूमिका निभायी। मनु प्रतिष्ठा संघर्ष समिति ने आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली द्वारा प्रकाशित, डॉ0 सुरेन्द्रकुमार द्वारा लिखित अनुसंधनात्मक मनुस्मृति को न्यायालय में प्रस्तुत कर प्रतिमा को यथावत् बनाये रखने के लिए स्थगनादेश प्राप्त कर लिया।
उपरोक्त घटना के 11 साल बाद लगा कि यह मसला अब शान्त हो गया है, पर महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकत्र्ता डॉ0 बाबा आढ़ाव ने महाड़ से जयपुर तक ’मनु प्रतिमा हटाओ यात्रा‘ निकाली, जो 26 जनवरी 2000 को महाड़ (महाराष्ट्र) से चली और 25 मार्च को जयपुर पहुँची। जयपुर के डॉ0 अम्बेडकर चैक पर धरना देते हुए इन्होंने नारा दिया-’मनुवाद मिटाओ, मनु प्रतिमा हटाओ, अम्बेडकर प्रतिमा लगाओ‘ इसी बीच श्री शरद पंवार के सहयोग से महाराष्ट्र से चुनकर आये रिपब्लिकन पार्टी के संसद सदस्य श्री रामदास आठवले के नेतृत्व में एक यात्रा दिनांक 8 मार्च 2000 की उक्त माँग को लेकर ही निकाली गई थी, जिसने राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री को मनु प्रतिमा हटाने के पक्ष में ज्ञापन दिया।
प्रतिमाओं को हटाने और बिठाने के पक्ष में कोई भी नेतृत्व जितनी आसानी और उत्साह से भीड़ इकट्ठी कर लेता है। उतनी आसानी और उत्साह से उस भीड़ को वह शास्त्राध्ययन की दिशा में उन्मुख नहीं कर पाता। निष्पक्ष, दलविहीन, स्वार्थी राजनीति से ऊपर उठकर तलस्पर्शी अध्ययन के माध्यम से उस भीड़ को समस्या की गहराई में जाने की प्रेरणा नहीं दी जाती। स्वार्थी राजनीति ने हर मुख्य सवाल को गौण और हर गौण समस्या को मुख्य बना दिया है। हिन्दी साहित्यकार अज्ञेयजी के शब्दों में-‘आत्मा का तेज हमें सहन नहीं होता, अस्थियों के लिए हम मंजुषाएँ बनाते हैं।‘ (गद्य के विविध रंग-पृष्ठ 117: सम्पादक-दूधनाथसिंह)।
डॉ0 मदनमोहन जावलिया के अनुसार-‘धर्मशास्त्रकार, विधि प्रणेता तथा वेदानुमोदित स्मृति प्रदाता महर्षि मनु पर पंक उछालनेवाले लोग राजनीति, आंबेडकरवादी बौद्ध मत और न ही दलितों का कोई भला कर रहे हैं। मनु की मूर्ति हटाने एवं उसके स्थान पर अम्बेडकर की मूर्ति लगाने की माँग हठधर्मिता एवं अलोकतान्त्रिकता की परिचायक है। न्यायालय में मनु ही क्या राम-कृष्ण, शंकराचार्य-बुद्ध, महावीर, अम्बेडकर की भी मूर्तियाँ लगें। पर खेद है कि दलितों के नाम से निर्मित दलों एवं राजनीतिक दलों ने ’दलित वोट बैंक‘ को हथियाने के लोभ में सवर्ण-हिन्दुओं को अपमानित करने का कुचक्र रचा है, जिसमें प्रत्यक्ष-परोक्षरूप से साम्यवादी तथा मुस्लिम संगठन भी शामिल हो गये हैं। हमारी दृष्टि में राजनीतिक व्यूह रचकर भोले-निर्धन हिन्दुओं और तथाकथित दलितों को बहकाने का मार्ग त्यागकर इन तथाकथित दलित नेताओं को शुद्ध हृदय से विशुद्ध मनुस्मृति का अध्ययन करना चाहिए। स्थान-स्थान पर मूर्तियों के अम्बार लगाने की अपेक्षा उस शक्ति को शास्त्राध्ययन की परिपाटी में लगाना ज्यादा जरूरी है। राजनीति के नाम पर अराजकता पूर्ण नीति से पृथक् होना अत्यावश्यक है।‘ (लेख-राजर्षि मनु, मनुस्मृति और मनु की प्रतिमा: आर्यजगत्-साप्ताहिक: 21 मई 2000, पृष्ठ-5)।
महाराष्ट्र के महाड़ से राजस्थान के जयपुर तक की 1600 किलोमीटर अन्तर की ’मनु प्रतिमा हटाओ यात्रा‘ निकालनेवाले डॉ0 बाबा आढ़ाव ने अपने आक्रोश भरे तेवर में यह प्रतिप्रश्न उपस्थित किया है कि-स्त्रियों तथा शूद्रातिशूद्रों से मनुस्मृति पढ़े जाने संबंधी धृष्टतापूर्वक सवाल भला पूछे ही कैसे जाते हैं ?‘ (पुरोगामी सत्यशोधक: त्रैमासिक-अक्टूबर से मार्च 2000 तक की संयुक्त अंक-पृष्ठ 45)। डॉ0 आढ़ाव का उक्त कथन वर्तमान सन्दर्भ में ठीक नहीं लगता। जब महात्मा फुले और स्वामी दयानन्द के प्रयत्नों से अध्ययन-अध्यापन के दरवाजे स्त्री शूद्रों के लिए भी खुल गये हैं, तब पठन-पाठन की परम्परा की संप्रति क्यों न प्रोत्साहित किया जाए? डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर के अनुयायी हों, या आर्यसमाज के अथवा अन्य किसी संगठन के सभी लोगों द्वारा शास्त्राध्ययन की परम्परा को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। तभी वैचारिक मतभेद रखते हुए भी वाद-विवाद के स्थान पर वाद-संवाद की स्थिति बन सकती है। कम-से-कम जिन मुद्दों पर हम सहमत हैं, उन पर तो कदम-से-कदम मिलाकर प्रगति की दिशा में एक साथ आगे बढ़ सकते हैं। एक और एक दो नहीं, अपितु ग्यारह बनकर समाज-सुधार के रथ और दलितोद्धार के चक्र को और अधिक गति देने में समर्थ हो सकते हैं।
मतभेद होते हुए भी जब हमारे प्रेरणास्रोत महात्मा फुले और स्वामी दयानन्द पुणे में एक-दूसरे को सहयोग करते हुए दिखलाई देते हैं, जब उनमें भाईचारा था, एक-दूसरे को समझने की तैयारी थी तो हम अनुयायियों में भी वह सहयोग भावना क्यों न हो ? स्वामी दयानन्द 16 जुलाई 1875 को महात्मा फुलेजी के जुनागंज पेठ स्थित शूद्रातिशूद्रों के स्कूल में वेदोपदेश दे रहे हैं, तो महात्मा फुले बुधवार पेठ और छावनी में जाकर स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रवचन सुन रहे हैं। 5 सितम्बर 1875 को पुणे में जब स्वामी दयानन्द सरस्वती की विदाई के उपलक्ष्य में शोभा यात्रा निकाली जा रही थी, तो प्रतिगामी शक्तियाँ किसी प्रकार की बाधा न पहुँचाएँ, इसलिए महात्मा फुले अपने अखाड़े के नौजवान अनुयायियों के साथ सिर हथेली पर लेकर चल रहे हैं। आखिर डॉ0 अम्बेडकर भी आर्यसमाज को उदारमतवाद की घुट्टी पिलानेवाली संस्था मानते थे। पुणे में डॉ0 अम्बेडकर की प्रेरणा से संचालित ’पार्वती मन्दिर प्रवेश सत्याग्रह‘ में आर्यसमाज के स्वामी योगानन्दजी 13 अक्टूबर 1929 को रूढ़िवादियों के प्रहार से क्षति-विक्षत होना पसन्द करते हैं, पर आन्दोलन से विमुख नहीं होते (बहिष्कृत भारत-साप्ताहिक 15 नवम्बर 1929, पृष्ठ 10)।
सुप्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार आचार्य चतुरसेन शास्त्री आर्यसमाजी संस्कारों में पालित-पोषित थे। उनके पिताजी अपने समय में ’नमस्तेजी‘ के नाम से प्रसिद्ध रहे। चतुरसेन शास्त्री ने ’अम्बपालिका‘, ’प्रबुद्ध‘, ’भिक्षुराज‘ जैसी बौद्ध कहानियाँ लिखीं और बुद्धकालीन इतिहास रस प्रस्तुत करने वाला ’वैशाली की नगर वधू‘ जैसा बौद्ध उपन्यास लिखा। काशी के सुप्रसिद्ध लेखक श्री शिवप्रसाद गुप्त ने भगवान बुद्ध की जीवनी और उपदेश में उस समय का वर्णन किया है, जब एक ही घर में ब्राह्मण और बौद्ध रहा करते थे। (पृष्ठ-8)। महात्मा फुलेजी ने भी ’सार्वजनिक सत्य धर्म‘ पुस्तक में ऐसे घर की कल्पना की है, जिसमें एक ही परिवार के सदस्य अलग-अलग साम्प्रदायिक विचारधारा के होते हुए भी सद्भाव-समन्वय और भाईचारे से रह रहे हैं। भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने कभी सोचा था ’आर्यसमाज के निराकार ईश्वर और बुद्ध को साथ-साथ रखूँ (जिनका मैं कृतज्ञ: राहुल सांकृत्यायान-पृष्ठ 164) प्रा0 राजेन्द्रजी जिज्ञासु ने समाज में भाईचारे की प्राथमिक आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कभी लिखा था, ’उलझन भरी दार्शनिक विषयों को सुलझाने का काम हमें अपने-अपने क्षेत्र के विद्वान् बाबाओं पर छोड़ देना चाहिए।‘ मुख्य उद्देश्य तो हर हाल में आपसी स्नेहभाव, शान्ति और भाईचारे को बनाये रखना ही होना चाहिए। आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती लिखते हैं-”जब तक वादी-प्रतिवादी होकर प्रीति से वाद वा लेखन न किया जाए, तब तक सत्य-असत्य का निश्चय नहीं हो सकता। जब विद्वान् लोगों मं सत्यासत्य का निश्चय नहीं होता, तभी अविद्वानों को महा अन्धकार में पड़कर बहुत दुःख उठाना पड़ता है, इसलिए सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ, मित्रता से वाद वा लेख करना हमारी मनुष्य जाति के मुख्य काम हैं, यदि ऐसा न हो तो मनुष्यों की उन्नति कभी न हो।“ (सत्यार्थप्रकाश: सम्पादक-युधिष्ठिर मीमांसक: द्वादश समुल्लास: पृष्ठ 607-8)।
इस प्रकार के संवाद हेतु वातावरण उत्पन्न करने के लिए सामाजिक सौहार्द अत्यावश्यक है, अतः यह आशा की जाती है कि सामाजिक सौहार्द को और अधिक व्यापक बनाने में समाज-सुधार और प्रगतिशीलता में आस्था रखनेवाले स्वामी दयानन्द और डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर के अनुयायी मिल-जुलकर अपना-अपना योगदान देंगे। तभी शब्द, वेद प्रामाण्यवाद, विषमता के विविध रूप, मनुस्मृति, पुनर्जन्म, आरक्षण, आस्तिकता जैसे गहन विषयों पर सुसंवाद और अंतिम निर्णय होना सम्भव है।