आर्य समाज के इतिहास में मिलावट की दुखद कहानी
इस विनीत ने इस पुस्तक को कालक्रम से नहीं लिखा। न ही
निरन्तर बैठ कर लिखा। जब-जब समय मिला जो बात लेखक के
ध्यान में आई अथवा लाई गई, उसे स्मृति के आधार पर लिखता
चला गया। इन पंक्तियों के लेखक ने आर्यसमाज से ऐसे संस्कार
विचार पाये कि अप्रामाणिक कथन व लेखन इसे बहुत अखरता है।
बहुत छोटी आयु में पं0 लेखराम जी, आचार्य रामदेव जी, पं0
रामचन्द्र जी देहलवी, पं0 शान्तिप्रकाश जी, पं0 लोकनाथ जी
आदि द्वारा दिये जाने वाले प्रमाणों व उद्धरणों की सत्यता की चर्चा
अपने ग्राम के आर्यों से सुन-सुन कर लेखक ने इस गुण को अपने
में पैदा करने की ठान ली।
भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि जी, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी
और स्वामी वेदानन्द जी महाराज को जब पहले पहल सुना तो उन्हें
बहुत सहज भाव से विभिन्न ग्रन्थों को उद्धृत करते सुना। उनकी
स्मरण शज़्ति की सब प्रशंसा किया करते थे। उनको बहुत कुछ
कण्ठाग्र था। उनके द्वारा दिये गये प्रमाणों, तथ्यों तथा अवतरणों
(Quotations) में आश्चर्यजनक शुद्धता ने इन पंक्तियों के लेखक
पर गहरी व अमिट छाप छोड़ी। पुराने आर्य विद्वानों की यह विशेषता
आर्यसमाज की पहचान बन गई। अप्रमाणिक कथन को आर्य नेता,
विद्वान् व संन्यासी तत्काल चुनौती दे देते थे।
इतिहास केसरी पं0 निरञ्जजनदेव जी अपने आरंभिक काल
का एक संस्मरण सुनाया करते थे। देश-विभाजन के कुछ समय
पश्चात् आर्यसमाज रोपड़ (पंजाब) के उत्सव पर पं0 निरञ्जनदेव
जी ने व्याज़्यान देते हुए दृष्टान्त रूप में एक रोचक घटना सुनाई।
दृष्टान्त तो अच्छा था, परन्तु यह घटना घटी ही नहीं थी। यह तो एक
गढ़ी गई कहानी थी। पूज्यपाद स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने अपने
शिष्य का व्याख्यान बड़े ध्यान से सुना।
बाद में पण्डित जी से पूछा-‘‘यह घटना कहाँ से सुनी? क्या
कहीं से पढ़ी है?’’
पं0 निरञ्जनदेव ने झट से किसी मासिक के अंक का पूरा अता
पता तथा पृष्ठ संख्या बताकर गुरु जी से कहा-‘‘मैंने उस पत्रिका
में छपे लेख में इसे पढ़ा था।’’
शिष्य से प्रमाण का पूरा अता-पता सुनकर महाराज बड़े प्रसन्न
हुए और कहा-‘‘प्रेरणा देने के लिए यह दृष्टान्त है तो अच्छा,
परन्तु यह घटना सत्य नहीं है। ऐसी घटना घटी ही नहीं।’’
स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, स्वामी आत्मानन्द जी, श्री महाशय
कृष्ण जी नये-नये युवकों से भूल हो जाने पर उन्हें ऐसे ही सजग
किया करते थे।
अंजाने में भूल हो जाना और बात है, परन्तु जानबूझ कर और
स्वप्रयोजन से इतिहास प्रदूषित करने के लिए चतुराई से मनगढ़न्त
कहानियाँ, बढ़ा-चढ़ाकर, घटाकर हदीसें गढ़ना यह देश, धर्म व
समाज के लिए घातक नीति है।
आर्यसमाज के आरम्भिक काल में ऋषि दयानन्द जी के सुधार
के कार्यों से प्रभावित होकर कई बड़े-बड़े व्यक्ति आर्यसमाज में
आए। वे ऋषि के धार्मिक तथा दार्शनिक सिद्धान्तों में आस्था विश्वास
नहीं रखते थे। इन्होंने अपने परिवारों में, अपने व्यवहार, आचार में
वैदिक धर्म का प्रवेश ही न होने दिया। इन बड़े लोगों को न समझने
से आर्यसमाज की बहुत क्षति हुई। इनमें से कई प्रसिद्धि पाकर
समाज को छोड़ भी गये। इतिहास-प्रदूषण का यह भी एक कारण
बना।
मेहता राधाकिशन द्वारा लिखित आर्यसमाज का इतिहास (उर्दू)
में क्या इतिहास था? लाला लाजपतराय जी ने अपनी अंग्रेज़ी
पुस्तक में कुछ संस्थाओं व पीड़ितों की सहायता पर तो लिखा है,
परन्तु पं0 लेखराम जी, वीर तुलसीराम, महात्मा नारायण स्वामी
आदि हुतात्माओं, महात्माओं का नाम तक नहीं दिया। इसे आप
क्या कहेंगे?
कुछ वर्षों से पुराने विद्वानों और महारथियों के उठ जाने से
वक्ता लेखक जो जी में आता है लिख देते हैं और जो मन में आता
है बोल देते हैं। कोई रोकने-टोकने वाला रहा नहीं। इस आपाधापी
व मनमानी को देखकर मन दुखी होता है। सम्पूर्ण आर्य जगत् से
आर्यजन मनगढ़न्त हदीसों को पढ़कर लेखक को प्रश्न पूछते रहते हैं।
इतिहास की यह तोड़-मरोड़ एक सांस्कृतिक आक्रमण
है। बहुत ध्यान से इस पर विचारा तो पता चला कि सन् 1978 से
ऋषि दयानन्द जी की जीवनी की आड़ लेकर डॉ0 भवानीलाल जी
ने आर्यसमाज के इतिहास को प्रदूषित करने का अभियान छेड़ रखा
है। ‘आर्यसन्देश’ साप्ताहिक दिल्ली में एक लेख देकर स्वयं को
धरती तल पर आर्यसमाज का सबसे बड़ा इतिहासकार घोषित
करके जो जी में आता है लिखते चले जा रहे हैं।
आस्ट्रेलिया के डॉ0 जे0 जार्डन्स ने अंग्रेज़ी में लिखी अपनी
पुस्तक में कोलकाता की आर्य सन्मार्ग संदर्शिनी सभा की चर्चा
करते हुए महर्षि के बारे दो भ्रामक, निराधार व आपत्तिजनक बातें
लिखी हैं। श्रीमान् जी ने आज तक इन पर दो पंक्तियाँ नहीं लिखीं।
डॉ0 जार्डन्स ने ऋषि को उद्देश्य से भटका हुआ भी लिखा है।
डॉ0 महावीर जी मीमांसक ने इस आक्षेप का अवश्य उत्तर दिया है।
स्वामी श्रद्धानन्द जी पर एक मौलाना ने एक लाञ्छन लगाया
था। वह तो स्वामी जी पर अपनी पुस्तक में डॉ0 जार्डन्स महोदय ने
दिया, परन्तु उसका उत्तर नहीं दिया। न हम जैसों से पूछा। डॉ0
भारतीय जी स्वप्रयोजन से, डॉ0 जार्डन्स का अपने ‘नवजागरण के
पुरोधा’ में चित्र देते हैं। उत्तर ऐसे आक्षेपों का आज तक नहीं दिया।
किसी वार प्रहार का कभी सामना किया? विरोधियों के
आपज़िजनक लेखों पर मौन साधने की आपकी नीति रही है।
आर्यसमाज में भी ‘योगी का आत्म चरित’ के प्रतिवाद के लिए
दीनबन्धु, आदित्यपाल सिंह जी व सच्चिदानन्द जी पर तो लेख पर
लेख दिये, परन्तु इन सबको आशीर्वाद देने वाले महात्मा आनन्द
स्वामी जी से उनकी इस महाभयंकर भूल पर कुछ कहने व लिखने
का साहस ही न बटोर सके। अपना हानि लाभ देखकर ही आप
लिखते चले आये हैं।
आर्यसमाज के बलिदानी संन्यासियों, विद्वानों, लेखकों
तथा शास्त्रार्थ महारथियों ने ऋषि को समझा, उनके सिद्धान्तों
को समझा, उनके जीवन से प्रेरणा पाकर ऋषि के मिशन की
रक्षा, वैदिक धर्म के प्रचार के लिए अपने शीश कटवाये,
प्राण दिये और लहू की धार देकर एक स्वर्णिम इतिहास बनाया।
मत-पन्थों से ऋषि की विचारधारा का लोहा मनवाया। ऐसे
गुणियों, मुनियों, प्राणवीरों को नीचा दिखाते हुए भारतीय जी
ने लिखा है-‘‘मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि उस महामानव
के जीवन एवं कृतित्व तथा उसके वैचारिक अवदान का
वस्तुनिष्ठ, तलस्पर्शी तथा मार्मिक, साथ ही भावना प्रवण
विश्लेषण जैसा आर्यसमाजेतर अध्येताओं ने किया है, वैसा
वे लोग नहीं कर सके हैं, जो दयानन्द के दृढ़ अनुयायी होने
का दावा करते हैं, अथवा जो उनकी विचारधारा से अपनी
प्रतिबद्धता की कसमें खाते नहीं थकते।’’1
श्रीमान् जी रौमाँ रौलाँ, दीनबन्धु सी0एफ़0 एण्ड्रयूज़ को ऋषि
की विचारधारा का मार्मिक विश्लेषण करने के लिए अपूर्व बताते
हैं। इसी प्रकार भारतीय लेखकों में देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, श्री
अरविन्द घोष तथा साधु टी0एल0 वास्वानी जैसी योग्यता व क्षमता
इस प्रमाणपत्र प्रदाता को किसी भी आर्यसमाजी लेखक में दिखाई
नहीं दी।1 जिनके नाम श्रीमान् ने लिये हैं उन्होंने आर्यसमाज को
कौनसा ज्ञानी, बलिदानी और समर्पित सेवक दिया? कोई गुरुदत्त ,
कोई लेखराम या कोई गंगाप्रसाद, अरविन्द जी आदि ने दिया क्या ?
इन्हें क्या पता कि श्री वास्वानी तो पं0 चमूपति जी की लेखन
शैली, विद्वज़ा व ऋषि-भज़्ति पर मुग्ध थे।
कुँवर सुखलाल जी ने कभी लिखा था-
सब मज़ाहब में ऐसी मची खलबली,
गोया महशर का आलम बपा कर गया।
तर्क के तीर बर्साय इस ज़ोर से,
होश पाखण्डियों के हवा कर गया॥
फिर लिखा-
नमस्ते लब पै आते ही मुख़ालिफ़ चौंक पड़ते थे।
समाजी नाम से पाखण्डियों के होश उड़ते थे॥
विरोधियों, विधर्मियों पर ऋषि की विचारधारा की धाक किन्होंने
बिठाई? मत पन्थों में खलबली मचाने वाले कौन थे? ऋषि की
सजीली ओ3म् पताका पहराने वाले कौन थे? ऋषि के सिद्धान्तों व
मन्तव्यों को समझकर ऋषि मिशन पर जानें वारने वाले, सर्वस्व
लुटाने वाले तथा दुःख-कष्ट झेलने वाले कौन थे?
सब जानकार पाठक कहेंगे कि यह पं0 लेखराम का वंश था।
जो स्वामी दर्शनानन्द जी से लेकर पं0 नरेन्द्र और पं0 शान्तिप्रकाश
जी तक इस मिशन के लिए तिल-तिल जले व जिये। क्या ऋषि को
समझे बिना उसकी राह पर शीश चढ़ाने वाले, यातनाएँ सहने वाले
स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द,
स्वामी वेदानन्द, पं0 रामचन्द्र देहलवी, पं0 गंगाप्रसाद सब मूर्ख थे
जो बिना सोचे समझे ऋषि मिशन पर जवानियाँ वार गये?
अरविन्द घोष महान् थे, परन्तु अन्त तक काली माता के ही
पूजक रहे। वास्वानी जी बहुत अच्छे अंग्रेज़ी लेखक थे, परन्तु
अपने मीरा स्कूल के बच्चों को उनकी परीक्षा के समय उनका पैन
छू कर आशीर्वाद देते थे। बच्चों में पैन स्पर्श करवाने के लिए होड़
लग जाती थी। क्या वास्वानी जी ने किसी को वैदिक धर्मी बनाया?
जब जब विरोधियों ने महर्षि दयानन्द जी के निर्मल-जीवन पर
कोई आक्षेप किया, कोई आपज़िजनक पुस्तक लिखी तो उज़र
किसने दिया? ऋषि के नाम लेवा उत्तर देने के लिए आगे आये
अथवा रोमा रोलाँ, श्री अरविन्द व वास्वानी महात्मा ने जान
जोख़िम में डालकर उत्तर दिया? अन्धविश्वासों का, पाखण्ड-
खण्डन का और वैदिक धर्म के मण्डन का कठिन कार्य शीश तली
पर धर कर स्वामी दर्शनानन्द, पं0 गणपति शर्मा, स्वामी नित्यानन्द,
पं0 धर्मभिक्षु, पं0 चमूपति, लक्ष्मण जी, पं0 लोकनाथ, पं0 नरेन्द्र,
पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय करते रहे अथवा उन लोगों ने किया
जिनका नाम लेकर डॉ0 भारतीय ‘कसमें खाने’ की ऊटपटांग
बात बनाकर आर्य महापुरुषों को लताड़ लगा रहे हैं।
हम श्रीमान् की करनी कथनी को देखते रहे। ऋषि जीवनी का
सर्वज्ञ बनकर प्राणवीर पं0 लेखराम तथा सब आर्यों को नीचा
दिखाने का कुकर्म करने वाले इस देवता ने महाराणा सज्जनसिंह
जी, केवल कृष्ण जी आदि पर तो दो-दो पृष्ठ लिख कर अपनी
नीतिमज़ा दिखा दी और अंग्रेज़ भज़्त प्रतापसिंह पर 47 पृष्ठ लिखकर
अपने को धन्य-धन्य माना। ‘अवध रीवियु’ में प्रतापसिंह ने अपनी
जीवनी छपवाई उसमें ऋषि का नाम तक नहीं। राधाकिशन
लिखित प्रतापसिंह की जीवनी जोधपुर राजपरिवार ने छापी
है। इस पुस्तक में भी ऋषि के जोधपुर आगमन पर कुछ नहीं।
फिर भी उसके शिकार के, गोरा भज़्ति के चित्र व प्रसंग न देकर
प्रतापसिंह का गुणगान करके राजपरिवार को तो रिझा ही लिया।
नन्ही वेश्या को चरित्र की पावनता का प्रमाण पत्र देकर इतिहास
को प्रदूषित करने की रही सही कमी पूरी कर दी।
सत्य का गला घोंटना इनका स्वभाव है। हम सर्वज्ञ नहीं हैं।
अल्पज्ञ जीव से भूल तो हो ही जाती है, परन्तु हम जानबूझ कर भूल
करना पाप मानते हैं। देश व जाति को भ्रमित करना तो और भी पाप
है। हम अपनी प्रत्येक भूल से जो भी अनजाने से हो जाये, सुधार के
लिए व खेद प्रकट करने के लिए हर घड़ी तत्पर हैं।
इतिहास प्रदूषण अभियान के हीरो श्री भवानीलाल जी को
पता चला कि यति मण्डल इस लेखक से आर्य संन्यासियों पर एक
ग्रन्थ लिखवा रहा है। तब आप बिन बुलाये पहली व अन्तिम बार
यति मण्डल की बैठक में पहुँच गये और कहा, मैंने आर्यसमाज के
साधुओं पर एक पुस्तक लिखी है, यति मण्डल इसे छपवा दे। इस
पर स्वामी सर्वानन्द जी बोले, ‘‘यह कार्य तो जिज्ञासु जी को सौंपा
जा चुका है, वे लिखेंगे। इस पर भवानीलाल जी बोले, ‘‘जिज्ञासु
जी तो लिखेंगे, मैंने तो पुस्तक लिख रखी है।’’ स्वामी सर्वानन्द जी
यह दुस्साहस देखकर दंग रह गये। स्वामी जी ने आचार्य नन्दकिशोर
जी से इनके बारे जो बात की, वह यहाँ क्या लिखें। तब स्वामी
ओमानन्द जी ने भी इन्हें कुछ सुनाईं। प्रश्न यह है कि इनका वह
महज़्वपूर्ण इतिहास ग्रन्थ फिर कहाँ छिप गया? वह अब तक छपा
क्यों नहीं? जिज्ञासु ने तो एक के बाद दूसरे और दूसरे के पश्चात्
तीसरे चौथे संन्यासी पर नये-नये ग्रन्थ दे दिये।
गंगानगर आर्यसमाज ने इस लेखक का सज़्मान रखा। हमने
स्वीकृति देकर भी सम्मान लेना अस्वीकार कर दिया। समाज वालों
ने यहां आकर सस्नेह दबाव डाला।
‘‘यह प्रेम बड़ा दृढ़ घाती है’ ’
हमें स्वीकृति देनी पड़ी। सम्मान वाले दिन श्रीमान् ने श्री
अशोक सहगल जी प्रधान को घर से सन्देश भेजा, ‘‘मैं जिज्ञासु जी
के साहित्य पर बोलूँगा, मुझे बुलवाओ।’’ उन्होंने कहा, ‘‘आ जाओ।
रिक्शा का किराया दे दिया जायेगा।’’ समाज ने मेरे विषय में (मेरे
रोकने पर भी) एक स्मारिका निकाली। उसमें भारतीय जी ने लेख
दिया कि ‘गंगा ज्ञान सागर’ जो चार भागों में छपा है निरुद्देश्य (At Random) है। इनकी उत्तम पवित्र सोच पर कवि की ये पंज़्तियाँ
याद आ गईं-
ख़ुदा मुझको ऐसी ख़ुदाई न दे।
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे॥
देश की आध दर्जन प्रादेशिक भाषाओं में इस ग्रन्थमाला का
अनुवाद मेरी अनुमति से किसी न किसी रूप में छपता चला आ
रहा है। आर्य विद्वानों ने, समाजों ने इनके उपर्युज़्त फ़तवे की
धज्जियाँ उड़ा कर रख दी हैं। मैंने अनुवाद छपवाने वालों से किसी
पारिश्रमिक की कोई माँग ही नहीं की।
हिण्डौन में पुरोधा के विमोचन के लिए यह ट0न0चतुर्वेदी जी
को लेकर गये। या तो चतुर्वेदी जी बोले या यह स्वयं अपने ग्रन्थ पर
बोले। डॉ0 श्री कुशलदेव जी तथा यह लेखक भी वहीं उपस्थित
थे। ऋषि जीवन पर कुछ जानने वालों में हमारी भी गिनती है।
भारतीय जी को अपनी रिसर्च की पोल खुलने का भय था। अपराध
बोध इन्हें कंपा रहा था। इन्हें हम दोनों को बोलने के लिए कहने
की हिज़्मत ही न पड़ी। इनको डर था कि इनके इतिहास प्रदूषण का
कच्चा चिट्ठा न खुल जाये। उस कार्यक्रम का संयोजन अपने आप
हाथ में ले लिया। हृदय की संकीर्णता व सोच की तुच्छता को सबने
देख लिया। हम आने लगे तो कुशलदेव जी ने अपने ग्रन्थ के
विमोचन के लिए हमें रोक लिया। यह अपना कार्यक्रम करके फिर
नहीं रुके। गंगानगर व हिण्डौन की घटना दिये बिना इतिहास
प्रदूषण अभियान का इतिहास अधूरा ही रहता।
सत्य की रक्षा के लिए, इतिहास-प्रदूषण को रोकने के लिए,
पं0 लेखराम वैदिक मिशन के लिए यह पुस्तक लिखी है। मिशन
के कर्मठ युवा कर्णधारों के स्नेह सौजन्य के लिए हम हृदय से
आभार मानते हैं। हम जानते हैं कि जहाँ कुछ महानुभाव आर्यसमाज
के इतिहास को विकृत व प्रदूषित करने वालों के अपकार की पोल
खुलने पर हमें जी भर कर कोसेंगे, वहाँ पर सत्यनिष्ठ, इतिहास प्रेमी
और ऋषि भज़्त आर्यजन हमारे साहस व प्रयास के लिए हमारी
सेवाओं व तथ्यों की ठीक-ठीक जानकारी देने के लिए धन्यवाद भी
अवश्य देंगे। कुछ शुभचिन्तक यह भी कहेंगे कि आपको इतिहास
प्रदूषित करने वालों के विकृत इतिहास का खण्डन करने से ज़्या
मिला? इससे क्या लाभ? देखो तो! युग कैसा है-
सच्च कहना हमाकत है और झूठ ख़िुरदमन्दी
इक बाग़ में इक कुमरी गाती यह तराना थी
वोह और ज़माना था, यह और ज़माना है
ऐसा कहने वालों की बात भी अपने स्थान पर ठीक है। सत्य
लिखना बोलना आज मूर्खता है और असत्य लिखना ख़िरदरमंदी
(बुद्धिमज़ा) है। एक वाटिका में एक कोकिला ठीक ही तो गा रही
थी कि यह और युग है। पहले और युग था। हमारा किसी से
व्यज़्तिगत झगड़ा नहीं। हमने जो कुछ लिखा है ऋषि मिशन की
रक्षा के लिए लिखा है।
आर्यजाति का एक सेवक
राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’
स्वामी श्रद्धानन्द बलिदान पर्व वेद सदन, गली नं0 6
संवत् 2071 वि0 नई सूरज नगरी, अबोहर-152116
लेख ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय है। हमें लगता है कि आर्य विद्वानों को मनसा वाचा कर्मणा एक समान होना चाहिए। यदि कोई विद्वान पक्षपात करता है वा किन्ही कारणों से तथ्यों की अनदेखी करता है तो यह उचित नहीं है। गलती करके गलती स्वीकार न करना भी उचित नहीं है। अनजाने में की गई गलतियां क्षम्य होती हैं परन्तु जानबूझकर यदि कोई गलती करता है तो वह अक्षम्य होती है। यह मेरे निजी विचार है जो सभी पर लागू होते हैं।
satya aur tartik vishleshan
अति सुन्दर व्याख्या…….स्वर्गीय श्री राजीव दीक्षित के बारे मैं आपके क्या विचार हैं, उनकी मृतु30 नवंबर 2010 को हुई थी, उन्होंने दावा किया था की उनके पास लंदन के house of commons के दस्तावेजों और अन्य दस्तावेजों के 50,000 documents हैं, जोकि भारत वर्ष के पिछले 200 वर्षो के अंग्रेजों के समय के थे, उन्होंने इसे सार्वजानिक भी किया था, क्या वे सब दस्तावेजों की प्रतिलिपि आज भी मौज़ूद है,??क्योंकि उन दस्तावेजों मैं भी भारत का इतिहास है, जिसे प्रतेक भारतीय को जानना आवश्यक है, ….इससे लोग स्वतः ही अपनी सोच बदल पाएंगे…..श्री राजीव जी भारत स्वाभिमान आंदोलन अवं आज़ादी बचाओ आंदोलनों से जुड़े रहे और ऋषि दयानंद जी के भी विचारों से अत्यंत प्रभावित थे….ऋशांक पाण्डेय, वसुंधरा ग़ाज़ियाबाद
Rajeev ji ka kathan bilkul sahee hai
Whana anekon aise documents aur bharat se lekar gayeen bahut pandulipiyana bhee wahan hein
aajkal aacharya santa kumar ji wahan ki libraries men pandulipiyan dekh rahe hein
unhone kuch pandulipiyon ki photo bhejee bhee hai