मुंशी इन्द्रमणि और इतिहास प्रदुषण: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

मुंशी इन्द्रमणि और इतिहास प्रदुषण

क्या  बालक से ऋषि ने ऐसी चर्चा की?

श्री भारतीय जी ने अपनी पुस्तक में लिखा है-‘‘मुरादाबाद

से मुंशी इन्द्रमणि भी महर्षि से भेंट हेतु अलीगढ़ आये तथा

जीव के अनादित्व पर चर्चा करते रहे।’’1 यह दिसम्बर  1873

के अन्तिम सप्ताह की घटना है। प्रश्न यह उठता है कि सन् 1865

में जन्मा केवल आठ वर्षीय बालक क्या  मुरादाबाद से अकेले ऋषि

को मिलने आया? आप ही ने मुंशी जी का जन्म का वर्ष सन्

1865 माना है।

दूसरा प्रश्न यहाँ यह उठता है कि स्वामी अच्युतानन्द जी जीव

ब्रह्म के भेद विषय पर ऋषि से शंका समाधान करते हैं तो एक पूरक

प्रश्न पूछने पर महर्षि जी स्वामी अच्युतानन्द जी से कहते हैं कि

तुम अभी बालक हो। आगे चलकर इसे समझ सकोगे। ‘आर्य

मित्र’ के महर्षि जन्म शताब्दी  विशेषाङ्क में स्वयं स्वामी अच्युतानन्द

जी ने अपने एक लेख में यह घटना लिखी है।

स्वामी अच्युतानन्द जी तो सन् 1853 में जन्में थे। आप तो

तब यौवन की चौखट पर पाँव धर चुके थे। मुंशी इन्द्रमणि आठ वर्ष

का बालक जीव के अनादित्व विषय पर चर्चा करने निकला है।

यहाँ ऋषि जी शिशु इन्द्रमणि से दार्शनिक चर्चा का आनन्द लेते हैं।

इस पर हम क्या  कहें? उर्दू में एक लोकोज़्ति हैं-‘‘अकल बड़ी

या भैंस’’।

ऋषि ने एक बार मुंशी जी को ‘बुज़र्ग’ भी कहा था। वह

ऋषि जी से कोई बीस वर्ष बड़े थे। स्वयं अकेले अलीगढ़ आये थे।

यह घटना हम सत्य ही मानते हैं।

मुंशी जी का लेखन कार्य

अपवाद रूप में संसार में कई बालक बहुत छोटी आयु में

बहुत अच्छे साहित्यकार बनकर चमके। हमारे देश में ही श्री ज्ञानेश्वर

महाराज, पं0 गुरुदज़ जी विद्यार्थी, पं0 चमूपति तथा वीर सावरकर

ने बहुत छोटी आयु में गद्य व पद्य सृजन करके यश पाया, परन्तु

पाठक हम से सहमत होंगे कि जन्म लेने से पूर्व ही कोई पुस्तक

लिख भी दे और छपवा भी दे-यह तो सज़्भव ही नहीं। जन्म लेते

ही कोई पुस्तक लिखकर छपवा दे यह भी नहीं माना जा सकता।

तीन और चार वर्ष की आयु में ही कोई सिद्धहस्त लेखक विद्वान्

बनकर ग्रन्थ पर ग्रन्थ लिखकर छपवा दे-यह भी तो सज़्भव नहीं

दीखता।

परन्तु महान् व्यज़्ति असज़्भव को सज़्भव कर दिखाने की

क्षमता रखते हैं। भारतीय जी ने सन् 1858 (जन्म से पूर्व),

सन् 1865 जन्म के समय, सन् 1868, तीन वर्ष की आयु में

और सन् 1869 चार वर्ष की आयु में भी इन्द्रमणि जी से ग्रन्थ

लिखवाये व छपवाये।1

स्वामी सत्यप्रकाश जी ने बिना पढ़े, बिने विचारे इन दोनों

पुस्तकों के प्राक्कथन  लिख डाले। विहंगम दृष्टि से पढ़ने पर तो

ऐसी पुस्तकों की गड़बड़ पकड़ में कहाँ आती है। इस लेखक की

समीक्षा पढ़कर स्वामी जी ने भारतीय जी से कहा था कि अपने

ग्रन्थ के साथ एक शुद्धि-अशुद्धि पत्र लगायें। इसके बिना

बिक्री नहीं होनी चाहिए, परन्तु भारतीय जी के अहं ने उनका

आदेश स्वीकार नहीं किया। तभी मैंने एक लेख में स्वामी जी के

इस कथन का उल्लेख कर दिया।

मरणोपरान्त मुंशी जी से लेखन कार्य करवाया

भारतीय जी की लगन, परिश्रम व उत्साह प्रशंसा योग्य है।

सृष्टि-नियम तो यह है कि जीते जी ही किसी व्यज़्ति से कोई पुस्तक

लिखवाई जा सकती है। मरणोपरान्त कोई आपके लिए एक

पृष्ठ लिखकर नहीं दे सकता। सृष्टि-नियम की चिन्ता न करके

भारतीय जी ने मुंशी इन्द्रमणि जी से एक सहस्र पृष्ठों से ऊपर

का ग्रन्थ लिखवा भी लिया और छपवा भी दिया। इस पुस्तक

का नाम है ‘आमादे हिन्द’ इसी को ‘इन्द्रवज्र’ नाम से प्रसिद्धि प्राप्त

हुई। भारतीय जी ने पं लेखराम जी के ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद का

सज़्पादन करते हुए इसका नाम ‘आमदे हिन्द’ कर दिया है।1

किसी से पूछ लेते तो इस अनर्थ से बचा जा सकता था। हमने

ऋषि जीवन में इसका शुद्ध नाम ‘आमादे हिन्द’ देकर यह कुचक्र

रोका है। ध्यान देने योग्य तथ्य तो यह है कि पं0 लेखराम जी का

बलिदान सन् 1897 में हुआ। वह ऋषि जीवन में1 तथा अपने

साहित्य में इन्द्र वज्र की चर्चा करते हैं। पण्डित जी लिखित ऋषि

जीवन सन् 1897 में ही प्रकाशित हो गया यह भारतीय जी मानते

हैं। इस मूल उर्दू ग्रन्थ में भी ‘इन्द्र वज्र’ की मुंशी इन्द्रमणि स्वयं

चर्चा करते हैं।2 इससे भी प्रमाणित हो गया कि यह ग्रन्थ मुंशी

जी ने जीते जी लिख दिया और छप भी गया।

परन्तु भारतीय जी दृढ़तापूर्वक लिखते हैं कि मुंशी जी ने सन्

1901 में इन्द्र वज्र लिखा व छपवाया।3 अब समझदार सज्जन

ही हमें सुझावें कि हम उनके इस कथन पर ‘सत्य वचन महाराज’

कैसे कह सकते हैं?

गुणी विद्वान् इन तथ्यों पर विचार करें और नीर क्षीर विवेक से

काम लेकर जो सत्य हो उसे स्वीकार कर इतिहास प्रदूषण को कुछ

तो रोकें।

 

  1. द्रष्टव्य, नवजागरण के पुरोधा, भाग पहला, पृष्ठ 401
  2. द्रष्टव्य, महर्षि दयानन्द के भज़्त, प्रशंसक और सत्संगी, पृष्ठ 17

46 इतिहास-प्रदूषण इतिहास-प्रदूषण 47

  1. द्रष्टव्य, पं0 लेखरामकृत हिन्दी जीवन चरित्र, सन् 2007, पृष्ठ 312
  2. द्रष्टव्य, उर्दू जीवनचरित्र महर्षि स्वामी दयानन्द, लेखक पं0 लेखराम, पृष्ठ 293
  3. द्रष्टव्य, ‘आर्य लेखक कोश’ पृष्ठ 23

 

4 thoughts on “मुंशी इन्द्रमणि और इतिहास प्रदुषण: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु”

  1. ‘आर्य मन्तव्य’ के आर्य-मित्रों की सेवा में :
    ———————————–

    – भावेश मेरजा (२४.०३.२०१६)

    ‘आर्य मन्तव्य’ ने अपनी इस पोस्ट में लिंक में दिए गए प्रा० श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी के एक लेख के आधार पर मुझसे कुछ प्रश्न किए हैं ।

    वैसे लिंक में संलग्न किया गया यह लेख मूलतः प्रा० श्री जिज्ञासु जी रचित ‘इतिहास प्रदूषण’ पुस्तक का ही अंश है, जिसे इस पुस्तक के पृष्ठ ४४-४७ पर पढ़ा जा सकता है । यहाँ प्रा० श्री जिज्ञासु जी ने मुन्शी इन्द्रमणि जी के सम्बन्ध में श्री डॉ० भवानीलाल भारतीय जी के लेखन पर आपत्ति की हैं ।

    मैंने ‘इतिहास प्रदूषण’ को पढ़ते समय ही इस प्रकरण पर यथामति विचार किया था । मुझे जो समझ में आया है, वह इस प्रकार है –

    डॉ० भारतीय जी रचित ‘ऋषि दयानन्द के भक्त, प्रशंसक और सत्संगी’ ग्रन्थ के प्रथम संस्करण (१९८६ ई०) में मुन्शी जी का जन्म-वर्ष ‘१८६५ ई०’ छपा है । (पृष्ठ १७) जबकि इसी ग्रन्थ के २०१४ ई० के नए संस्करण में मुन्शी जी का जन्म-वर्ष ‘१८६५ वि०’ दिया गया है । (पृष्ठ ३२) मुझे लगता है कि ‘१८६५ ई०’ गलत है और ‘१८६५ वि०’ सही है ।

    डॉ० भारतीय जी रचित ‘आर्य लेखक कोश’ (प्रकाशन वर्ष १९९१ ई०) में मुन्शी जी का जन्म-वर्ष ‘१८४५’ छपा मिलता है । (पृष्ठ २३) मुझे लगता है कि यहाँ ‘१८६५ वि०’ छपना चाहिए था; परन्तु छपा है केवल ‘१८४५’, जो अशुद्ध है । यह मुद्रण-त्रुटि भी हो सकती है, और यह भी सम्भव है कि लेखक से ही भूल हो गई हो ।

    १८६५ वि० में लगभग १८०९ ई० का वर्ष पड़ता होगा । इसे (अर्थात् १८६५ वि० को) मुन्शी जी का जन्म-वर्ष मानने के पश्चात् प्रा० जिज्ञासु जी के द्वारा प्रस्तुत किए गए एतद्-विषयक ये प्रश्न (जो कि पर्याप्त व्यंग्यात्मक व मनोरंजक हैं !) प्रायः अप्रस्तुत हो जाते हैं, ऐसा मैं समझता हूं ।

    डॉ० भारतीय जी ने अपने इन ग्रन्थों में मुन्शी जी का निधन ‘१९२१ ई०’ और ‘१९२१’ लिखा है । मैं समझता हूं कि यह अशुद्ध है । प्रा० जिज्ञासु जी का यह कथन मुझे सही लगता है कि -“मुन्शी जी १८८९-१८९० ई० के आसपास चल बसे ।” (महर्षि दयानन्द सरस्वती : सम्पूर्ण जीवन-चरित्र, भाग २, पृष्ठ ६८९)

    वर्ष का निर्देश करने में सदैव विशेष सावधानी अपेक्षित है, क्योंकि दी गई वर्ष-संख्या ईस्वी सन् है या विक्रम सम्वत् – यह स्पष्टतः नहीं बताने से या गलत लिखने से इस प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं, विशेषकर तब जब एक ही लेख या ग्रन्थ में विक्रम सम्वत् और ईस्वी सन् दोनों का प्रयोग करने की आवश्यकता पड़ती हो ।

    मैं नहीं जानता कि ‘आर्य मन्तव्य’ के मेरे मित्रों को मेरे इस स्पष्टीकरण से कितनी सन्तुष्टि होगी । परन्तु मेरी समझ में जो आया है, उसे यहाँ प्रकाशित करने को मैंने मेरा कर्त्तव्य समझा है । मेरा कोई आग्रह नहीं है । धन्यवाद !

    1. भावेश मेरजा जी
      नमस्ते

      चलो कभी तो आपने अपने गुरु कि गलती को स्वीकार किया

      जिज्ञासु जी द्वारा प्रस्तुत कथन आपको व्यंगात्मक और मनोरंजक लगे ये तो स्वाभाविक है
      व्यक्ति जब स्याह रंग या किसी विशेष रंग का चश्मा पहन लेता है तो उसे सब स्याह या सभी वस्तुएं उसी सम्बंधित रंग कि प्रतीत होने लगती हैं
      सदैव सत्य को स्वीकार करना चाहिए ये सिद्धांत केवल पुस्तकों में पढ़ने और इन्टरनेट पर ज्ञान बांटने के लिए ही रह जाते हैं

      धन्यवाद
      नमस्ते

  2. नमस्ते आर्य जी, आपने मेरी इस कोमेंट को यहाँ स्थान दिया एतदर्थ आपका आभारी हूं ।
    भावेश मेरजा

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