माननीय आचार्य सोमदेव जी की पुस्तक ‘जिज्ञासा-समाधान’ के प्रथम भाग का प्राक्कथन लिखते हुए मैंने आर्यसमाज की शंका-समाधान की परपरा की ओर आर्यों का ध्यान खींचा है। इस परपरा के जनक महर्षि दयानन्द जी महाराज हैं। इस परपरा को अखण्ड बनाना हमारा पवित्र कर्त्तव्य है। पं. गुरुदत्त जी, पं. लेखराम जी, स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. गणपति शर्मा, पं. धर्मभिक्षु, पं. रामचन्द्र देहलवी, पं. नरेन्द्र जी आदि ने जान जोखिम में डालकर इस परपरा को अखण्ड बनाया है। इस स्वर्णिम इतिहास में हम भी नये-नये अध्याय जोड़ें।
मैंने प्राक्कथन में सुझाया है कि प्रत्येक आर्य वक्ता व लेखक को शंका-समाधान, प्रश्नोत्तर करते हुए पूर्वजों का नाम ले-लेकर महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के उनके द्वारा दिये गये मौलिक उत्तर जोड़ने चाहिए। पूर्वजों के साहित्य की सूचियाँ देने से कुछ न बनेगा। बहुत प्रामाणिकता से उनके दिये उत्तर उद्धृत किये जायें। कुछ उदाहरण देते हैं-
- 1. पं. लेखराम जी ने शैतान द्वारा पाप करवाने पर लिखा है- ‘‘वास्तव में शैतान को पाचन वटी मानकर पापों से बचना छोड़ दिया।’’
- 2. ऋषि ने खाने-पीने से बहिश्ती मल विसर्जन करेंगे तो दुर्गंधि व प्रदूषण होगा तो गंदगी मल-मूत्र कौन उठायेगा? यह प्रश्न किया तो मौलाना सना उल्ला ने लिखा कि यह बेगार काफ़िरों से ली जायेगी। इस पर पं. चमूपति जी ने लिखा- ‘‘तो क्या दोज़ख (नरक) भी उनके साथ बहिश्त में जायेगा अथवा स्वल्प काल के लिये वे नरक से छुटकारा पायेंगे?’’
- 3. बहिश्त में जब सुख-सुविधायें, खाने के पदार्थ, संसार जैसे होंगे तो स्वास्थ्य रक्षा के लिए परिश्रम, पुरुषार्थ करने की क्या व्यवस्था होगी? पं. चमूपति जी का यह प्रश्न कितना स्वाभाविक व मौलिक है!
अपने सिद्धान्तों की पुष्टि मेंः– हमारे विद्वान् अवैदिक मान्यताओं व पाखण्ड-खण्डन के लिए अच्छे-अच्छे लेख व पुस्तकें लिखते हैं परन्तु अब एक चूक हमारे लेखक कर रहे हैं। अन्य मतों की वेद विरुद्ध बातों की तो चुन-चुन कर चर्चा करते हैं, अवैदिक मतों के साहित्य में वैदिक सिद्धान्तों के पक्ष में लिखे गये प्रमाण अथवा वैदिक धर्म की मान्यताओं की जो रंगत बढ़ रही है, उसका प्रचार नहीं किया जाता। पुराने आर्य विद्वानों से हम यह भी सीखें यथा सर सैयद अहमद लिखते हैं-
(1) ‘‘पहले आदम को केवल वृक्षों के फल खाने की आज्ञा दी गई। पशुओं के मांस के खाने की अनुमति नहीं थी।’’
(2) ‘परोपकारी’ में ‘तड़प-झड़प’ में अमरीका से प्रकाशित नये बाइबिल से प्रमाण दिये गये थे कि सृष्टि की उत्पत्ति के वर्णन में अब शाकाहार का ही आदेश हैं। माँसाहार का हटा दिया गया है।
(3) आदि सृष्टि में अनेक युवा पुरुष व स्त्रियाँ पैदा की गई, बाइबिल में यह वर्णन पढ़कर ऋषि की जयकार क्यों नहीं लगाई जाती। ऐसे-ऐसे प्रमाण खोज-खोज कर हम सब दें।
(4) ब्रह्माकुमारी वाले बार-बार ईश्वर की सर्वव्यापकता का खण्डन करते हुए कई कुतर्क देते हैं। इससे ईश्वर मल-मूत्र में भी मानना पड़ेगा। जहाँ क्रिया होगी, वहाँ कर्त्ता होगा ही। जहाँ कर्त्ता होगा, वहीं क्रिया होगी। सृष्टि में कहाँ गति नहीं। परमाणु में भी विज्ञान गति मानता है। वेद भी डंके की चोट से यही कहता है। जगत् शब्द ही गति का बोध करवाता है फिर ईश्वर की सर्वव्यापकता में संशय क्या रहा? क्या गंदे नालों में कीड़े-मकोड़े पैदा नहीं होते? इन्हें क्या ईश्वर नहीं बनाता? ईश्वर का नाक ही नहीं, उसे दुर्गंधि क्यों आयेगी? उसका शरीर ही नहीं (अकायम) उसे मल क्यों चिपकेगा? ये कुछ संकेत यहाँ दिये हैं। मैं तो पूर्वजों की इस शैली को ध्यान में रखता हूँ। आगे कभी फिर इस पर लिखा जावेगा।