परमपिता परमेश्वर ने जब सृष्टि का निर्माण किया तब सृष्टि में अनेकविध जड़-चेतनों का निर्माण किया। इन नाना विध जड़-चेतनों में यदि कोई सर्वश्रेष्ठ है तो वह है मनुष्य। जैसे परमात्मा ने अपनी सर्वोत्तम कृति मनुष्य को बनाया है ठीक वैसे ही मनुष्यों ने भी अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना के रुप में संसार का निर्माण किया है। इसीलिए मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा जाता है। मनुष्य ने जिस प्रकार के नियम और व्यवस्था की है उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता हैै कि उसने पूर्णरुप से परमात्मा की नकल की है क्योंकि परमेश्वर अपने द्वारा निर्मित सृष्टि के नियमों के सदैव अनुकुल रहता है वैसे ही मनुष्य अपने द्वारा निर्मित समाज के नियमों में बंधा हुआ होता है। इस प्रकार हम इसके मूल को खोजे तो हमें ज्ञात होता है कि अनुशासन में इसकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। परमेश्वर अपने द्वारा निर्मित सृष्टि नियमों के सर्वदानुकुल रहता है। क्योंकि परमेश्वर अपने आपमें अनुशासित होता है। यदि परमेश्वर अनुशासित नहीं होता तो प्रतिदिन प्रलय और निर्माण करता रहता। वह १४ मनवन्तरों के इतने लम्बे समय की प्रतीक्षा नहीं करता। जिस समय जो चाहता वहीं करता। इसी अनुशासन को हम जड़-चेतन दोनों में ही देख सकते हैं। जड़रुपी सूर्य यदि अनुशासन के अन्दर नहीं होता तो वह अपनी इच्छा से निकलता और डूबता, परन्तु ऐसा नहीं है।
इसीलिए अनुशासन की नितान्त अनिवार्यता है। इसी कारण अनुशासन के अभाव में अव्यवस्था न फैल जाये । इस प्रकार सोचकर परमपिता परमेश्वर ने सृष्टि के आदि में चार सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को वेद का ज्ञान दिया। इस वेद के ज्ञान से सम्पूर्ण प्राणी मात्र अनुशासन सहित अनेक विध ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त करे व करावें और धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष को प्राप्त होवे।
पशुओं को अपने जन्म के पश्चात् माँ के स्तनपान करना सीखना नहीं पड़ता। पशुओं में जन्म से ही तैरने का गुण विद्यमान होता है। पशुओं की संवेदन शक्ति बहुत तीव्र होती है। इस बात को वैज्ञानिक लोग भी स्वीकार करते हैं। इसीलिए तो जब कोई मन्त्री या नेता आदि लोग आते हैं उनके सेवक गण गुप्त स्फोटक पदार्थों को ढूढ़ने के लिए मशीन के साथ-साथ कुत्तों को भी लेकर आते हैं। इसप्रकार हम कह सकते है कि पशु जन्म से ही पूर्ण है। वो भोगों को भोगने के लिए इस सृष्टि पर आये हैं न कि कर्म करने के लिए। इसीलिए पशुओं को भोगयोनि की श्रेणी में रखा जाता है। अतः परमेश्वर ने वेदों का ज्ञान प्राणीमात्र के लिए प्रदान किया है।
सृष्टि के आदि में परमेश्वर ने चार सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को वेद का ज्ञान दिया। ऋग्वेद का ज्ञान अग्नि ऋषि को, यजुर्वेद का ज्ञान वायु ऋषि को, सामवेद का ज्ञान आदित्य ऋषि को, अथर्ववेद का ज्ञान अंगिरा को प्रदान किया। इन्हीं ऋषिओं की परम्परा से वेदों का शुध्द ज्ञान आज हम को प्राप्त हो रहा है। इन चारों वेदों में प्रत्येक विषय का ज्ञान है। पुनरपि मुख्य रुप से ज्ञान, कर्म और उपासना ये तीन वेदों के विषय हैं।
माता-पिता जिस प्रकार अपनी सन्तान को कार्य करने के लिए सुख, सुविधा के लिए उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं वैसे ही संसार के लोगों के लिए उस परमेश्वर ने आवश्यक वस्तु वेद को मानव समाज को दिया। इन वेदों में वो सम्पूर्ण सामग्री है जिसे पाकर मनुष्य सुख-शान्ति व समृध्दि को पा कर अत्यन्त परमधाम मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
जब हमारा जन्म होता है तब हमारी माता जी हमें बताती हैं कि अमुक व्यक्ति तुम्हारा भाई हैं, पिता हैं इत्यादि। जितना माता अपने बच्चों से प्यार करती है, उतना और कोई कदापि नहीं कर सकता।
वेदों को भी इसीलिए वेदमाता प्रचोदयन्ताम्…..मन्त्र से माता के नाम से सम्बोधित किया जाता है। क्योंकि वेदमाता परमपिता परमेश्वर के विषय में जितना बता सकती है, उतना और दूसरा कोई नहीं बता सकता इसलिए परमपिता परमेश्वर को अच्छी प्रकार से जानने के लिए वेद को जानना और मानना नितान्त अनिवार्य है। मानव समाज के लिए वेद की भूमिका में सबसे महत्वपूर्ण बात है आस्तिक बनना। जब व्यक्ति आस्तिक हो जायेगा तो समाज अत्यधिक उन्नति करेगा। आस्तिकता के आते ही मनुष्य अनुशासित हो जाता है। अनुशासन के अन्तर्गत ही मनुष्य नियम पूर्वक कार्य करने लगता है। आस्तिक होने का सीधा-साफ अर्थ है-परमेश्वर को सर्वव्यापक मानना। इसी से मनुष्य जब भी कोई कार्य करता है तब यही महसुस करता है कि उसे परमेश्वर देख रहा है। परन्तु वर्तमान समय में अनुशासन नहीं हैं, इसका कारण है कि हम आस्तिक नहीं है, वेद को नहीं मानते। (नास्तिको वेद निन्दकः)
इसी अनुशासन के आभाव में दुराचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार व्याप्त हो रहा है। इन सब समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए हमें वेद की शरण में जाना पडे़गा। वेदों की महत्वपूर्ण भूमिका मनुष्य की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में है। प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि – मेरा घर परिवार सुखी हो, समृध्दि से भरा हो, पुत्र आज्ञाकारी हो, पत्नी मधुरभाषी हो। इन्हीं बातों को वेद में इसप्रकार व्यक्त किया गया है –
अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शान्तिवान् ।।
( अथर्व.-३/३॰/२)
अर्थात् पुत्र पिता का अनुव्रती होवे अर्थात् पिता के व्रतों को पूर्ण करने वाला हो। पुत्र माता के साथ उत्तम मन वाला हो अर्थात् माता के मन को संतुष्ट करने वाला हो। पत्नी पति के साथ मधुर एवं शान्ति युक्त बोले। इसी बात को चाणक्य ने लिखा है कि –
यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी।
विभवे यश्च संतुष्टस्तस्य स्वर्गम् इहैवहि ॥
(चाणक्यनीति)
मनुष्य को सुखी रखने के लिए चाणक्य जी कहते हैं कि-
ते पुत्रा ये पितुर्भक्ता स पिता यस्तु पोषकः।
तन्मित्रं यस्य विश्वासः सा भार्या यत्र निवृत्तिः।।
पुत्र वही है जो पिता का भक्त हो और पिता का भक्त हो और पिता वही जो पुत्र का पालन पोषण करता हो, मित्र वही जिस पर विश्वास किया जाये और पत्नी वही है जिससे सुख प्राप्त किया जाए।
इस प्रकार वेद तथा ऋषिग्रन्थ यही बताते हैं कि सुखी जीवन के लिए परिवार में परस्पर उत्तरदायित्व तथा सहयोग की भावना बनी रहे।
मानव समाज को व्यवस्थित रखने के लिए लोगों के कार्य भी व्यवस्थित होने चाहिए। इसीलिए वेद में कहा गया है-
ब्राह्मणोऽस्यमुखमासीद् बाहूः राजन्यः कृतः।
उरु तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत् ॥
इस मन्त्र से सिध्द होता है कि सम्पूर्ण संसार के मनुष्यों को कर्म के आधार पर चार भागों में बाँटा गया है।
ब्राह्मण: वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना-कराना, यज्ञ करना-कराना, दान लेना तथा देना करना कर्मों को करना ब्राह्मणों का परम कर्तव्य है;-
अध्यापनमध्यनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिगृह´चैव ब्रह्मणनामकल्पमत्।। (मनु.-१/८८)
क्षत्रिय: प्रजा का रक्षण, दान देना, यज्ञ करना, वेदाध्ययन करना एवं विषयों में आसक्त न होना आदि कर्मों को करना क्षत्रियों का परम कर्तव्य है।।
प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।
विषयेष्वप्रशक्ति क्षत्रियस्य समासतः।। (मनु.-१/८९)
वैश्य: पशुओं का रक्षण, दान देना, यज्ञ करना, वेदाध्ययन करना, वाणिज्य-व्यापार आदि कर्मों को करना वैश्यों का परम कर्तव्य है।
पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
वाणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च।। (मनु.-१/९॰)
शुद्र: उपर्युक्त तीनों वर्णों की सेवा शुश्रूषा करना शूद्रों के कर्म हैं।
एकमेव तु शुद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।। (मनु.-१/९१)
इस प्रकार की वर्ण व्यवस्था समाज में होने से सुख-शान्ति का माहौल बना रहता है।
मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो कर्म योनी के अन्तर्गत आता है। मनुष्यों को कार्य करने की स्वतन्त्रता है परन्तु फल भोगने की स्वतन्त्रता नहीं है। जैसे योगेश्वर श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि-
कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफल हेतुर्भूमा ते संगोस्त्वकर्मणि।।
मनुष्य कर्म करने में सर्वदा स्वतन्त्र है परन्तु फल भोगने में परतन्त्र है। इसीलिए उसे सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म का ज्ञान होना चाहिए क्योंकि इन्हीं कर्मों के अनुसार मनुष्यों को फल मिलता है। अच्छे बुरे कर्मों की पहचान के लिए कहा गया है कि – ‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्’ अर्थात् स्वयं को जो व्यवहार अच्छा न लगे, उसे अन्यों के साथ कदापि नहीं करना चाहिए। हमारी आत्मा सही गलत का सही निर्णायक है। इसीलिए जब अपनी आत्मा को कोई कार्य अच्छा न लगता हो भला वह कार्य दूसरों के लिए कैसे हितकर हो सकता है? ऐसी विचारधारा के होने से हम गलत कार्यों के करने से रुक जायेंगे।
मनुष्य का सदाचारी होना बहुत जरुरी है। सदाचारी मनुष्य ही समाज में सुखी रह सकता है और दूसरों को सुख दे सकता है। वर्तमान समाज में सदाचार की नितान्त अनिवार्यता है। इसके लिए वेद हमें उपदेश देते हुए कहता है कि-
सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यं हुरो गात्।
आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीतो पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ।। (ऋग्वेद-१॰/५/६)
अर्थात् हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मद्यपान, जुआ, असत्य भाषण और इन पापों के करने वालों दुष्टों का सहयोग करने का नाम सप्त मर्यादा है। इनमें से जो एक भी मर्यादा का उल्लंघन करता है अर्थात् एक भी पाप करता है, वह पापी होता है और जो धैर्य से इन हिंसादि पापों को छोड़ देता है, वह निस्संदेह जीवन का स्तम्भ ;आदर्शद्ध होता है और मोक्षभागी होता है।
उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जाहि श्वयातुमुत कोकयातुम्।
सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र।। (ऋग्वेद-७/१॰४/२२)
अर्थात् गरुड़ के समान मद (घमंड), गीध के समान लोभ, कोक के समान काम, कुत्ते के समान मत्सर, उलूक के समान मोह (मूर्खता) और भेडि़या के समान क्रोध को मार भगाना अर्थात् काम, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि छह विकारों को अपने अन्तःकरण से हटा दो।
आज संसार में सत्यता का अभाव है इसी लिए कहा जाता है कि – ‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्………’ सत्य बोलने के साथ-साथ मधुर भाषण होना चाहिए। अतः कहा गहा है कि-
जिह्नाया अग्रे मधु मे जिह्नामूले मधूलकम्।
ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि।।
मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्।
वाचा वदामि मधुमद् भूयासं मधु संदृशः।। (अथर्ववेद-१/३४/२-३)
अर्थात् मेरी जिह्ना के अग्रभाग में मधुरता हो और जिह्ना के मूल में मधुरता हो। हे मधुरता! मेरे कर्म में तेरा वास हो और मेरे मन के अन्दर भी तू पहुँच जा। मेरा आना-जाना मधुर हो, मैं स्वयं मधुर मूर्ति बन जाऊॅ।
हमारी किसी भी इन्द्रिय से अभद्र, असभ्य व्यवहार न होवे इसके लिए वेद बारम्बार आदेश देता है –
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां सस्तनूभिव्र्यशेमहि देवहितं यदायुः।। (यजुर्वेद-२५/२१)
समाज में शराब पीना व जुआ खेलना एक शौक हो गया है। इन कृत्यों से समाज का निरन्तर पतन ही हो रहा है। एतदर्थ इनकी रोकथाम के लिए वेद कहता है कि –
हत्सु पीतासे युध्यन्त दुर्मदासो न सुशयाम्। ऊधर्न नग्ना जरन्ते।।
अर्थात् दिल खोलकर शराब पीने वाले दुष्ट लोग आपस में लड़ते हैं और नंगे होकर व्यर्थ बड़बड़ाते हैं, इसीलिए शराब कदापि नहीं पीनी चाहिए।
जिसप्रकार शराब पीना बुरा है, उसी प्रकार जुआ खेलना भी बुरा है। वेद उपदेश देता है:-
जाया तप्यते कितवस्य हीना माता पुत्रस्य चरतः क्वस्वित्।
ऋणावा विभ्यध्दनमिच्छमानोऽन्येषामस्तमुप नक्तमेति।।
अर्थात् जुआरी की स्त्री कष्टमय अवस्था के कारण दुःखी रहती है, गली-गली मारे-मारे फिरने वाले जुआरी की माता रोती रहती है, कर्जे से लदा हुआ जुआरी स्वयं सदा डरता रहता है और धन की इच्छा से वह रात के समय दूसरों के घरों में चोरी करने के लिए पहुँचना है, इसलिए जुआ खेलना अत्यन्त बुरा है।
इसी प्रकार चोरी को भी बुरा बतलाया गया है। अतः अथर्ववेद में कहा गया है कि-
येऽमावास्यां रात्रिमुदस्थुव्र्राजमत्रिणः।
अग्निस्तुरीयो यातुहा सो अस्मभ्यमधि ब्रवत्।।
अर्थात् जो मुफ्तखोरे, भूखे और भटकने वाले रात्री में बस्ती के भीतर चोरी करने और डाका डालने के लिए आते हैं, उनसे बचने के लिए राजपुरुष सबको सचेत करता है और उन्हें पकड़कर मार डालता है। इसीलिए कभी भी किसी की चोरी नहीं करनी चाहिए।
वास्तव में यह सत्य प्रतीत होता है कि हम यदि वेद के द्वारा निर्दिष्ट मार्गों का अनुसरण करने तो निश्चित ही आज समाज में फैली बुराईयाँ समाप्त हो जायेंगी। इसीलिए हम सबको वेदों की प्रासंगिता को समझते हुए ‘संगच्छध्वं संवदध्वम्’ की भावना से ओत-प्रोत होते हुए वेद के द्वारा दिखाये गये मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।
वेदों की श्रेष्ठता के बारे में श्री अटलबिहारी वाजपेयी जी कहते हैं कि-
वेद-वेद के मन्त्र मन्त्र में,
मन्त्र मन्त्र की पंक्ति-पक्ति में।
पंक्ति-पंक्ति के अक्षर स्वर में,
दिव्य ज्ञान आलोक प्रदीप्त।।
आर्यों! वेदनिधि को पहचान कर स्वयं को वेदानुकुल बनावें और दूसरों को भी वेद मार्ग का अनुसरण करने का उपदेश देवें।
– श्रीमद् दयानन्दार्ष-ज्योतिर्मठ-गुरुकुल,
दून-वाटिका-२, पौन्धा, देहरादून
ved manteron ka saral hindi me arth zaroor likhen. kayee bar Bhasha ki klishthta se arth samajh nahi paate
bilku ji aage se dhyan rkhuga.. abhi mai ek new lekh likh rha hu.. usme sbhi mantro ke arth ko bhut hi saral bhasha me likhuga…..
लेख बहुत अच्छा लगा