हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता अग्निः सरस्वती च। छन्दः भुरिग् ब्राह्मी त्रिष्टुप् ।
अग्नेऽदब्धायोऽशीतम पाहि मा दिद्योः पाहि प्रसित्यै पहि दुरिष्ट्यै पाहि दुरद्मन्याऽअविषं नः पितुं कृणु सुषदा योनौ स्वाहा वाडग्नये संवेशपतये स्वाहा सरस्वत्यै यशोभूगिन्यै स्वाहा ।।।
हे ( अदब्धायो ) मनुष्य को अहिंसित, अक्षत रखने वाले, (अशीतम ) सर्वव्यापक (अग्ने ) अग्ननायक जगदीश्वर! आप हमें ( पाहि ) बचाओ ( दिद्यो:) वज्र से, ( पाहि ) बचाओ (प्रसियै ) जाल से, ( पाहि ) बचाओ ( दुरिष्ट्यै ) दुर्यज्ञ से, ( पाहि) बचाओ (दुरद्मन्यै ) दुर्भोजन से, ( अविषं ) विषरहित (नः पितुं कृणु ) हमारे भोजन को करो। हे सरस्वती ! तू हमारे ( योनौ ) घर में ( सुषदा ) सुस्थित हो। ( स्वाहा ) एतदर्थ हम प्रार्थना करते हैं, ( वाड्) पुरुषार्थ करते हैं । ( संवेशपतये अग्नये स्वाहा ) समाधि के रक्षक आप जगदीश्वर का हम स्वागत करते हैं। ( यशोभगिन्यै सरस्वत्यै स्वाहा ) यश का भागी बनाने वाली सरस्वती का हम स्वागत करते हैं।
जगदीश्वर इस जड़-चेतन जगत् की रचना करता है और वही इसकी रक्षा भी करता है। मनुष्य भी यद्यपि सर्वोत्कृष्ट प्राणी है, तो भी वह उसकी रक्षा के बिना रक्षित नहीं रह सकता। सच तो यह है कि मनुष्य स्वयं अपनी हिंसा को निमन्त्रण देता रहता है। यदि उसे चेतानेवाला उसका संरक्षक परमेश्वर न हो तो वह शत वर्ष क्या, कुछ वर्ष भी जीवित नहीं रह सकता । परमेश्वर की सर्वव्यापकता का ध्यान भी मनुष्य को ऐसे कुकर्मों को करने से रोकता है, जिनसे उसकी हिंसा या क्षति होती हो। शत्रु का वज्र या उसके संहारक अस्त्र-शस्त्र भी मनुष्य को मृत्यु के घाट उतारने के लिए पर्याप्त हैं।
हे जगदीश! आप ही उसे शत्रु से लोहा लेकर उस पर विजय पाने का महाबल प्रदान कर सकते हो। काम, क्रोध आदि आन्तरिक षड् रिपु भी अपना जाल फैला कर संसार सागर में तैरते हुए मनुष्य को ऐसे ही फँसाने के लिए तत्पर हैं, जैसे मछुआरा मछलियों को अपने जाल में फँसाता है।
हे प्रभु, आप ही उसे उस जाल के प्रलोभन से दूर रहने की प्रेरणा कर सकते हो। मानव कुसङ्गति में पड़ कर दुर्भोजन भी करने लगता है। उसका स्वाभाविक भोजन तो फल, कन्दमूल, दूध, नवनीत, अन्न, रस, बादाम, किशमिश, छुहारा आदि ही हैं, किन्तु वह अण्डे, मांस, मदिरा आदि का भी सेवन करने लगता है। वह जिह्वा के स्वाद के वश होकर विषैले खाद्य और पये को भी अपने दैनिक भोजन का अङ्ग बना लेता है। उसे इसका परिज्ञान ही नहीं होता कि व्यापारिक कम्पनियाँ धन कमाने के लिए उसके आगे खट्टे, मीठे, तीखे, चरपरे, स्वादिष्ठ विषैले खाद्य और पेयों को परोस रही हैं। उसे तो स्वाद का आकर्षण होता है ।
हे महेश्वर ! आप ही किसी साधु बाबा को भेज कर मनुष्य को यह शिक्षा दिलाते हो कि वह इन विषैली वस्तुओं का बहिष्कार करे। आप हमें यह सीख दो और बल दो कि हम शत्रु के वज्र को निर्वीर्य करने का सामर्थ्य जुटायें, आन्तरिक रिपुओं के जाल में न फैंसने की दूर-दर्शिता प्राप्त करें और दुर्भोजन का विषपान न करें। हे परमात्मन्! मनुष्य जब योगाभ्यास में तत्पर होता है और यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान की क्रियाओं को करता हुआ समाधि तक पहुँचता है, तब उसकी उस समाधि के रक्षक भी आप ही होते हो। इस योगैश्वर्य के दाता के रूप में भी हम आपका स्वागत करते हैं।
हे अग्निसम तेजस्वी देवाधिदेव ! जैसे हम आपका स्वागत कर रहे हैं, वैसे ही आपकी दी हुई सरस्वती अर्थात् वेदविद्या का भी स्वागत करते हैं, उसका अध्ययन-अध्यापन करते हैं। और उसके उपदेशों को जीवन में चरितार्थ करते हैं। हमारे घरों में वह सरस्वती सदा ‘सुषदा’ रहे, सुस्थिर रहे। हे वेदविद्यारूप सरस्वती ! तू ‘यशोभगिनी’ है, हमें यश का भागी बनाने वाली है। तेरा स्वागत है।
हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ
पद–टिप्पणियाँ
१. अदब्धो ऽ नुपहंसितः आयुर्मनुष्यो यजमानो यस्य सो ऽ दब्धायु: म० । आयु=मनुष्य, निघं० २.३।
२. अशू व्याप्तौ । अश्नुते व्याप्नोति इत्यशी, अतिशयेन अशी अशीतमः, दीर्घश्छान्दस:-म० ।
३. दिद्युत्=वज्र, निघं० २.२०, तकारलोप । अथवा दिवु मर्दने चुरादिः । देवयति मृनाति अनेन इति दिद्युः वज्रः । दिव धातो: बाहुलकाद् उणादिः कुः प्रत्ययः, द्वित्वं च ।
४. प्रसितिः प्रसयनात् तन्तुर्वा जालं वा । निरु० ६.१२।।
५. अदनम् अद्मनी, दुष्टा अद्मनी दुरद्मनी दुर्भोजनम्-म० ।।
६. पितु=अन्न, निघं० २.७।।
७. योनि=गृह, निघं० ३.४
८. (वाड्) क्रियार्थे–२०भा० ।
९. संवेश–निद्रा, योगक्षेत्र में समाधि।
१०.यशांसि भजितुं शीलं यस्याः तस्यै–द०भा० ।
हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ