लेखक – स्वामी ओमानंद्जी सरस्वती
मांसाहारी लोगों द्वारा हानि
मांसाहारी लोग उपकारी पशु पक्षियों का अपने स्वार्थवश नाश करके जगत् की बड़ी भारी हानि करते हैं । किसी कवि ने एक भजन द्वारा इसका बड़ा अच्छा दिग्दर्शन कराया है । श्री पूज्य स्वामी धर्मानन्द जी महाराज का यह बड़ा प्रिय भजन है । मांसाहार का खण्डन करते हुये वे इसे बहुत प्रेम से उत्सवों में गाया करते हैं
यह भजन वैदिक भावनाओं के अनुरूप है ।
(दोहा)
जो गल काटै और का अपना रहै कटाय ।
साईं के दरबार में बदला कहीं न जाय ॥
मांसाहारी लोगों ने भारत में विघ्न मचा दिये ॥टेक॥
गोमाता सा दुखी ना कोई, घी और दूध कहां से होई ।
सारा कर्म बलबुद्धि खोई, दुर्बल निपट बना दिये ।
दुष्टाचारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥१॥
हय श्वानों का पालन करते, गोरक्षा में चित्त न धरते ।
हिंसा करत जरा नहीं डरते, गल पर छुरी चला दिये ।
आफत तारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥२॥
जिनसे है दुनियां का पालन, उन्हें मार क्या सुख हो लालन ।
फंस गई प्रजा विपत के जाल, उत्तम पशु खपा दिये ।
क्या मन धारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥३॥
मृगों की डार नजर न आवें, दरियावों में मीन न पावें ।
मोर कहां से कूक सुनावें, मार मार के ढा दिये ।
विपता डारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥४॥
कबूतरों के गोल रहे ना, तीतर करत किलोल रहे ना ।
शुक मैना बेमोल रहे ना, हरियल गर्द मिला दिये ।
पंडुकी मारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥५॥
अजा, भेड़, दुम्बे ना छोड़े, उनके हो गये जग में तोड़े ।
कहां से बनेंगे ऊनी जोड़े, महंगे मोल बिका दिये ।
कीनी ख्वारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥६॥
पाढ़े नील गाय हन डारे, ससे स्यार मुर्ग गोह विचारे ।
गरीब कच्छप नटों ने मारे,ऐसे त्रास दिखा दिये ।
दुःख दे भारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥७॥
जब जब सब जन्तु निबड़ जायेंगे, सोचो तो फिर ये क्या खायेंगे ।
कह घीसा सब सुख नसायेंगे, सो कारण मैं गा दिये ।
सुन लई सारी लोगों ने ॥ मांसाहारी …..॥८॥
इसी प्रकार चौधरी घीसाराम जी (मेरठ निवासी) का एक अन्य भजन भी मांस भक्षण निषेध पर है । वह इस प्रकार है –
(दोहा)
बकरी खात पात है, ताकी काढ़ी खाल ।
जिसे वाम मारग कहें, विषय पाप का भोग ॥
मांस मांस सब एक से, क्या बकरी क्या गाय ।
यह जग अन्धा हो रहा, जान बूझ कर खाय ॥
टेक – नर दोजख में जाते हैं, बेखता जीव को मार के ।
और के गले पर छुरी धरे हैं, नहीं संग दिल दया करे हैं ।
पापी कुष्ठी होय मरे हैं, दिल से रहम बिसार के ।
गल अपना कटवाते हैं ॥१॥
जो गल काट के बहिश्त में जाना, काट कुटुम्ब को भी पहुंचाना ।
और खुदा को दोष लगाना, उसका नाम पुकार के ॥
दुःख देख न घबराते हैं ॥२॥
घास खांय सो गल कटवावें, मांस खाय वो किस घर जायें ।
समझें ना बहुविध समझावें, खुश होते सिर तार के ।
करनी का फल पाते हैं ॥३॥
मांस मांस सब हैं इकसारी, क्या बकरी क्या गाय बिचारी ।
जान बूझ खाते नर नारी, रूप दुष्ट का धार के ॥४॥
बढ़ जाते हैं रोग बदन में, ना कुछ ताकत बढ़ती तन में ।
हे ईश्वर दे ज्ञान उरन में, बख्शें ज्ञान विचार के ।
जन घीसा यश गाते हैं ॥५॥
उर्दू कविता
एक उर्दू के कवि ने अपने भावों को निम्न प्रकार से प्रकट करते हुये निर्दोष प्राणियों पर दया करने की याचना (अपील) ही है –
पशुओं की हड्डियों को अब ना तबर से तोड़ो ।
चिड़ियों को देख उड़ती, छर्रे न इन पे छोड़ो ॥
अजलूम जिसको देखो, उसकी मदद को दोड़ो ।
जख्मी के जख्म सी दो और टूटे उज्व जोड़ो ॥
बागों में बुलबुलों को फूलों को चूमने दो ।
चिड़ियों को आसमां में आजाद घूमने दो ॥
दुमही को यह दिया है इस होसिला प्रभु ने ।
जो रस्म अच्छी देखो, उसको लगो चलाने ।
लाखों ने मांस छोड़, सब्जी लगे हैं खाने ।
और प्रेम रस जल से हरजा लगे रचाने ॥
इन में भी जान समझ कर इन को जकात दे दो ।
यह काम धर्म का है, तुम इसमें साथ दे दो ॥
लेखक – स्वामी ओमानंद्जी सरस्वती