हदीसों को बस हदीस ही समझेंः–
दो-तीन पाठकों ने ऋषि दयानन्द जी व आर्य समाज की हिन्दी को देन पर छपे एक ेलेख के बारे में कई प्रश्न पूछे हैं। मैं हदीसें गढ़ने वालों की कल्पनाशक्ति का तो प्रशंसक हूँ, परन्तु उनके फतवों पर कुछ नहीं कह सकता। गप्प तो गप्प ही होती है।1. स्वामी श्रद्धानन्द जी ने रात-रात में ‘सद्धर्म प्रचारक’ उर्दू साप्ताहिक को हिन्दी में कर दिया। यह सुनने-सुनाने में तो अच्छा लगता है, वैसे यह एक मनगढन्त कहानी है। सद्धर्म प्रचारक के अन्तिम महीनों के अंक इस गप्प की पोल खोलते हैं। आर्य समाचार मेरठ एक उर्दू मासिक था। इसके मुखपृष्ठ पर इसका नाम तो हिन्दी में भी छपता था। इसको हिन्दी का पत्र बताने वाले खोजी लेखक इसका एक अंक दिखायें। आर्य दर्पण मासिक भी द्विभाषी पत्र था। हिन्दी व उर्दू दो भाषाओं में होता था। उसे हिन्दी मासिक लिखना आंशिक सच है। मैंने इसके त्रिभाषी अंक भी देखे हैं। आर्य समाज के सदस्यों ने हिन्दी में लाखों पुस्तकें लिख दीं। इस पर तो टिप्पणी करना भी उचित नहीं। मिर्जा कादियानी भी ऐसे ही सैंकड़ों, सहस्रों की नहीं, लाखों की घोषणायें किया करता था। भगवान आर्य समाज को ऐसी रिसर्च व ऐसे खोजियों से बचावे । इससे अधिक इन प्रश्नों का उत्तर क्या दिया जावे?