ओ३म्
‘एक ऐतिहासिक स्थल की खोज जहां रोचक शास्त्रार्थ हुआ था’
समय समय पर अनेक ऐतिहासिक घटनायें घटित होती रहती हैं परन्तु कई बार उनमें से कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं का महत्व न जानकर उस काल के लोग उसकी सुरक्षा का ध्यान नहीं करते। बाद के लोगों को उसके लिए काफी पुरूषार्थ करना पड़ता है। कई बार सफलता मिल जाती है और कई बार नहीं मिलती। डा. कुशल देव शास्त्री आर्य जगत के प्रतिष्ठित विद्वान, अथक गवेषक, तपस्वी सेवक, खोजी लेखक व पत्रकार थे। जून सन् 1997 में कादियां में आयोजित पं. लेखराम बलिदान शताब्दी समारोह में वह पधारे थे। हम भी इस कार्यक्रम में अपने मित्रों के साथ पहुचें थे। कादियां में ही आर्य समाज के इतिहास प्रसिद्ध विद्वान और प्रचारक हुतात्मा प. लेखराम जी के उनके 6 मार्च, 1897 को बलिदान से पूर्व अनेक व्याख्यान हुए थे। आर्य जगत के उच्च कोटि के लेखक व विद्वान प्राध्यापक राजेन्द्र जिज्ञासु ने कादियां में अपने विद्यार्थी जीवन में लगभग 10 वर्षों तक निवास किया था। वह इस स्थान के चप्पे-चप्पे से परिचित रहे हैं। बलिदान समारोह में भेंट के अवसर पर डा. कुशल देव ने प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु से प्रश्न किया कि पं. लेखराम जी ने लाहौर से कादियां आ–आकर व्याख्यान किस स्थान पर दिये थे? जिज्ञासु जी का इससे पहले इस प्रश्न पर ध्यान नहीं गया था और न ही उन्हें उस स्थान का पता था जहां कादियां में पं. लेखराम जी के व्याख्यान हुआ करते थे। उन्होंने कुशलदेव जी को वास्तविकता बताई और कहा कि ‘मैं अब इसकी गहन खोज करूंगा।’
जिज्ञासु जी ने खोज आरम्भ की और कादियां के एक मुस्लिम सज्जन के एक लेख से उन्हें पता चला कि वहां स्कूल के मैदान में पं. लेखराम ने सद्धर्म का प्रचार करते हुए पाखण्डों का खण्डन किया था। स्कूल कादियां में किस स्थान पर था, वह उस लेख में नहीं था। घटना को 100 वर्ष से कुछ अधिक समय व्यतीत हो जाने के कारण वहां किसी पुराने स्कूल के भग्नावशेष भी विद्यमान नहीं थे। अतः जिज्ञासु जी उस स्कूल की खोज करने में लग गये जिस स्थान पर कादियां का वह स्कूल स्थित था? चिन्तन-मनन करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि कादियां में सबसे पुराने आर्य समाजी उस समय बाबू सोहनलाल जी ही जीवित हैं जो उन दिनों मुम्बई में रहते थे। उन्होंने मुम्बई के अपने परिचित लोगों को बाबू सोहनलाल का पता करने का आग्रह किया। इन बाबू सोहनलाल जी से जिज्ञासु जी अपनी युवावस्था के दिनों में परिचित थे। जिज्ञासु जी आर्यसमाज के लिए इसके सदस्यों से मासिक सदस्यता शुल्क एकत्र किया करते थे। बाबू सोहनलाल जी आर्यसमाज के सत्संग में तो आते नहीं थे परन्तु लगभग सन् 1950 के वर्ष में प्रत्येक माह 1 रूपया मासिक चन्दा देते थे। इस कारण जिज्ञासुजी का उनसे प्रत्येक माह मिलना होता था तथा दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह से पहचानते थे। मुम्बई के आर्य समाज के सक्रिय अनुयायी एवं नेता श्री अरूण अबरोल से सम्पर्क करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि श्री अबरोल, बाबू सोहनलाल जी को जानते हैं और वह उन्हें मुम्बई आने पर उनसे मिलवा देंगे। जिज्ञासु जी मुम्बई पहुंच गये और श्री अबरोल के साथ उनसे मिले। श्री सोहनलाल और जिज्ञासुजी दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया। जिज्ञासुजी ने प्रश्न किया कि मैं वैदिक धर्म की वेदी पर बलिदान हुए हुतात्मा पं. लेखराम के बारे में जानने आया हूं कि वह जब कादियां वैदिक धर्म के प्रचार के लिए आते थे तो उनके व्याख्यान वहां किस स्थान पर होते थे? दोनों विद्वत्जनों के वार्तालाप में बाबूजी ने बताया कि कादियां में आपके घर के आगे गन्दे नाले के पास एक छोटा सा स्कूल होता था, उसी के मैदान में लोग उन्हें सुनने आते थे। इस प्रकार से जिज्ञासु जी व डा. कुशल देव शास्त्री की खोज पूरी हो गई परन्तु इस वार्तालाप में बाबू सोहनलाल जी ने जिज्ञासु जी को यह भी बताया कि वह आर्यसमाजी क्यों व कैसे बनें? सोहनलाल जी ने कहा कि इसी स्कूल में पुजर्नन्म विषय पर आर्यसमाज के शास्त्रार्थ महारथी और मुस्लिम मत के तलस्पर्शी विद्वान पण्डित धर्मभिक्षु जी का एक मिर्जाई मौलवी से शास्त्रार्थ हुआ था। बाबू सोहनलाल जी के अनुसार शास्त्रार्थ स्थल पर दर्शकों की भारी भीड़ थी। श्रोताओं में हिन्दू व सिख एक ओर थे और बहुसंख्यक मिर्जाई अपने मौलाना का उत्साह बढ़ाने के लिए बहुत बड़ी संख्या में आये थे। शास्त्रार्थ में मौलाना ने अपनी सारी शक्ति इस बात पर लगाई कि यदि पूर्वजन्म होता है तो फिर हमें इसकी स्मृति क्यों नहीं रहती? श्री पण्डित जी ने उनके प्रश्न का कई प्रकार से उत्तर दिया। उन्होंने कहा कि इस जन्म की बड़ी-बड़ी सब घटनायें क्या हमें याद रहा करती हैं? इसका मौलाना जी के पास कोई उत्तर नहीं था। मौलाना के पास पुनर्जन्म पर कहने लिए कोई सशक्त प्रमाण या दलील नहीं थी। अपनी पुरानी बात को ही नये तरीके से पेश करते हुए उन्होंने कहा कि आप बताएं, ‘‘आप पूर्वजन्म में क्या थे? गधे थे, कुत्ते थे, सूअर थे, गाय थे—क्या थे?” पण्डित जी ने कहा, “सब जन्मों की तो मुझे अब याद नहीं परन्तु इससे पहले के जन्म में मैं तुम्हारा बाप था।“ इतना कहना था कि मौलाना बोल पड़ा, ‘‘नहीं ! आप मेरे बाप नहीं बल्कि मेरी बीवी थे” अर्थात् मैं तुम्हारा पति था और तुम मेरी पत्नी थे। इस पर पण्डित जी ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं तुम्हारा बाप नहीं बीवी था, परन्तु पुनर्जन्म तो सिद्ध हो गया। आपने हमारा सिद्धान्त तो मान ही लिया।“
पण्डित घर्मभिक्षु जी के यह शब्द सुनकर मौलाना मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ और बाबू सोहनलाल इस घटना से प्रभावित होकर आर्यसमाजी बन गये। बाबूजी ने श्री राजेन्द्र जिज्ञासु को बताया कि जब यह शास्त्रार्थ हुआ था तब वह विद्यार्थी थे और इस शास्त्रार्थ को सुनकर और मिर्जाई मौलवी के भागने का दृश्य देखकर वह आर्यसमाजी बने थेे। इस घटना से बाबूजी के जीवन में एक नया मोड़ आया था अतः यह घटना ज्यों की त्यों उन्हें पूर्णतः स्मरण थी। इस प्रकार एक ऐतिहासिक स्थान, जहां रक्तसांक्षी हुतात्मा पं. लेखराम जी ने कादियां में व्याख्यान दिए थे, की खोज हुई और वहां पुनर्जन्म विषय पर एक शास्त्रार्थ का एक प्रत्यक्षदर्शी से वर्णन सुनने के साथ उस शास्त्रार्थ के प्रभाव से उनके आर्य समाजी बनने की घटना का ज्ञान हुआ। इसी प्रकार की इतिहास में अनेक घटनायें हुआ करती है परन्तु उनकी सुरक्षा न होने के कारण वह विस्मृत हो जाती हैं। आर्य समाज के यशस्वी भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनी भी लाहौर में वैदिक रिसर्च स्कालर पं. गुरूदत्त विद्यार्थी के शास्त्रार्थ को सुनकर आर्यसमाजी बने थे जिसके बाद उन्होंने सारा जीवन देश विदेश में आर्य समाज के प्रचार कर कीर्तिमान बनाया है। मेहता जैमिनी का खोजपूर्ण विस्तृत जीवन चरित्र भी पं. राजेन्द्र जिज्ञासु ने लिखा है जो कि पठनीय है।
–मनमोहन कुमार आर्य
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मनमोहन आर्य जी, उक्त सुन्दर संस्मरण से सब को परिचित करवाने के लिए साधुवाद। आर्यसमाज ने विधर्मियों को समय-समय पर परास्त कर अच्छी छाप छोड़ी है,लेकिन अब स्वाध्याय से विमुख और स्वार्थ की आर्यसमाज के प्रधान/मन्त्री की राजनीति में व्यस्त हो सब इतिहास को भी धूमिल कर दिया है। पुराने लोगों ने खून पसीने से जिन्हें खड़ा किया उन्हीं अपनी ही संस्थाओं को बेच खाया है यह जानते हुए भी कि कर्मव्यवस्था में इसका भोग मुझे भोगना होगा। खैर, परमात्मा हमें सद्बुद्धि दे। पुनः धन्यवाद के साथ-
ब्रह्मदेव, संस्कृतविभाग कां0