पृथिवी और बौद्ध सिद्धान्त :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

भपज्जरस्य भ्रमणावलोकादाधारशून्या कुरिति प्रतीति: । खस्थं न दृष्टंच गुरु क्षमातः खेऽधः प्रयातीति वदन्ति बौद्धाः ॥ द्वौ द्वौ रवीन्दू भगणौ चतद्व देकान्तरौ तावुदयं व्रजेताम् । यदब्रु वन्नेव मनर्थवादान् ब्रवीम्यतस्तान प्रति युक्तियुक्तम् ॥

बौद्ध कहते हैं कि आकाश में निराधार सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि को भ्रमण करते देखते हैं । इसी प्रकार पृथिवी निराधार ही है और कोई भी भारी पदार्थ आकाश में स्थिर नहीं रहता, अतः पृथिवी को भी स्थिर मानना उचित नहीं । तो यह नीचे को जा रही है जैसा मानना चाहिए। जैन और बौद्ध यह भी मानते हैं कि सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि दो-दो हैं, एक अस्त होता है तो दूसरा काम करता है । इस पर भास्कराचार्य कहते हैं कि इनका कथन अनर्थवाद है और इसमें यह युक्ति देते हैं;

यथा-  भूःखेऽधः खलु यातीति बुद्धिर्बोद्ध ? मुधा कथम् । याता- यातञ्च दृष्टवापि खे यत्क्षिप्तं गुरु क्षितिम् ॥

हे बौद्ध ! ऐसी व्यर्थ बुद्धि आपको कहाँ से आई, जिससे आप कहते हैं कि यह भूमि नीचे को जा रही है । यदि भूमि नीचे को गिरती हुई रहती तो आकाश में फेंके हुए पत्थर आदि लघु पदार्थ कभी नहीं पुन: लौटकर पृथिवी को पाते, क्योंकि पृथिवी बहुत भारी होने से नीचे को अधिक वेग से जाती होगी और फेंके हुए पदार्थों का वेग उससे न्यून ही रहेगा, परन्तु क्षिप्त वस्तु पृथिवी पर आ जाती है, अतः पृथिवी आकाश के नीचे जा रही है यह मिथ्या भ्रम है और जो यह कहते हैं कि दो-दो चन्द्र-नक्षत्र आदि हैं सो ठीक नहीं, क्योंकि दिन में ही ये देख पड़ते हैं ।

पृथिवी के ऊपर मनुष्यों का वास – यह भी एक महाभ्रम है कि हम भारतवासी तो पृथिवी के ऊपर बसते हैं और बलि राजा अपने असुर दलों के साथ पृथिवी के नीचे पाताल में राज्य करता है या नाग लोक कहीं पाताल में है । महाशयो ! पाताल कोई देश नहीं जैसे यहाँ से हम नीचे भाग को पाताल समझते हैं। वैसे ही उस भाग के रहने हारे हमको पाताल में समझते हैं। भूमि के वास्तविक स्वरूप का बोध न होने से ऐसे-ऐसे कुसंस्कार उत्पन्न हुए हैं । पृथिवी के चारों तरफ मनुष्य बसते हैं और उन्हें सूर्य का प्रकाश भी यथासम्भव प्राप्त होता रहता है। एक ही समय में पृथिवी के भिन्न-भिन्न भाग में भिन्न समय रहता है । जब अर्ध भाग में दिन रहता है तब अन्य अर्ध भाग में रात्रि होती है । इस विज्ञान को हमारे पूर्वज अच्छी प्रकार जानते थे; यथा-

लङ्कापुरेऽर्कस्य यदोदयः स्यात्तदा दिनार्द्धं यमकोटिपुर्याम् । अधस्तदा सिद्धपुरेऽस्तकालः स्याद्रोमके रात्रिदलं तदैव ॥

जिस समय लंका में सूर्य का उदय होता है उस समय यमकोटि नामक नगर में दोपहर, नीचे सिद्धपुरी में अस्तकाल और रोमक में रात्रि रहती है ।

इससे प्रतीत होता है कि पृथिवी पर के सब मनुष्यों में पहले भी आजकल के समान व्यवहार होता था । ज्योतिष शास्त्र की बड़ी उन्नति थी और पृथिवी के ऊपर चारों तरफ मनुष्य वास करते हैं, हम विज्ञान को भी जानते थे ।

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