डॉ. अम्बेडकर द्वारा मनु के श्लोकों का अशुद्ध अर्थ करना और उन अशुद्ध अर्थों के आधार पर अशुद्ध और मनु-विरोधी निष्कर्ष प्रस्तुत करना, इन दोनों ही कारणों से डॉ0 साहब के लेखन की प्रामणिकता नष्ट हुई है। वे अर्थ, चाहे अनजाने में किये गये हैं अथवा जान बूझकर, वे संस्कृत भाषा और उसके व्याकरण के अनुसार अशुद्ध हैं। संस्कृत भाषा का साधारण ज्ञाता भी तुरन्त समझ लेता है कि वे अर्थ गलत हैं। बुद्धिमानों में अशुद्ध लेखन कभी मान्य नहीं होता। यद्यपि डॉ0 अम्बेडकर कृत अशुद्ध अर्थ पर्याप्त संया में हैं, तथापि यहां स्थालीपुलाक न्याय से कुछ ही श्लोकार्थ उद्घृत करके उनका सही अर्थ और समीक्षा दी जा रही है। इस लेखन से दो संकेत मिलते हैं-या तो दूसरों के अनुवादों पर निर्भरता के कारण और स्वयं संस्कृत ज्ञान न होने कारण ये अशुद्धियां हुई हैं, या राजनीतिक लक्ष्य से विरोध करने के लिए जान-बूझकर कर उन्होंने अशुद्ध अर्थ किये हैं। पाठक देखें-
(1) अशुद्ध अर्थ करके मनु के काल में भ्रान्ति पैदा करना और मनु को बौद्ध-विरोधी सिद्ध करना :-
(क) पाखण्डिनो विकर्मस्थान् वैडालव्रतिकान् शठान्।
हैतुकान् वकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्॥ (4.30)
डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘वह (गृहस्थ) वचन से भी विधर्मी, तार्किक (जो वेद के विरुद्ध तर्क करे) को समान न दे।’’ ‘‘मनुस्मृति में बौद्धों और बौद्ध धर्म के विरुद्ध स्पष्ट व्यवस्थाएं दी गई हैं।’’(अम्बेडकर वाङ्मय, ब्राह्मणवाद की विजय, पृ0 153)
शुद्ध अर्थ :-‘पाखण्डियों, विरुद्ध कर्म करने वालों अर्थात् अपराधियों, बिल्ली के समान छली-कपटी जनों, धूर्तों, कुतर्कियों, बगुलाभक्त लोगों का, अपने घर आने पर, वाणी सेाी सत्कार न करे।’
समीक्षा-इस श्लोक में आचरणहीन लोगों की गणना है और उनका वाणी से भी आतिथ्य न करने का निर्देश है। यहां ‘विकर्मी अर्थात् विरुद्ध कर्म करने वालों’ का बलात् विधर्मी अर्थ कल्पित करके फिर उसका अर्थ बौद्ध कर लिया है। विकर्मी का ‘विधर्मी’ अर्थ किसी भी प्रकार नहीं बनता। ऐसा करके सभी भाष्यकार और डॉ. अम्बेडकर , मनु को बौद्धों से परवर्ती और बौद्ध-विरोधी सिद्ध करना चाहते हैं। यह कितनी बेसिरपैर की कल्पना है!! बुद्ध से हजारों पीढ़ी पूर्व उत्पन्न मनु की स्मृति में परवर्ती बौद्धों की चर्चा कैसे हो सकती है? ऐसे अशुद्ध अर्थ बुद्धिमानों में कभी मान्य नहीं हो सकते।
(ख) या वेदबाह्याः स्मृतयः याश्च काश्च कुदृष्टयः।
सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः॥ (12.95)
अर्थ-डॉ0 अम्बेडकर कृत जो वेद पर आधारित नहीं हैं, मृत्यु के बाद कोई फल नहीं देतीं, क्योंकि उनके बारे में यह घोषित है कि वे अंधकार पर आधारित हैं। ‘‘मनु के शदों में विधर्मी बौद्ध धर्मावलबी हैं।’’ (वही, पृ0 158)
शुद्ध अर्थ-‘वेदोक्त’ सिद्धान्तों के विरुद्ध जो मान्यताएं, ग्रन्थ हैं (असुरों, नास्तिकों आदि के बनाये हुए), और जो कोई कुसिद्धान्त हैं, वे सब श्रेष्ठ फल से रहित हैं। वे परलोक और इस लोक में अज्ञानान्धकार एवं दुःख में फंसाने वाले हैं।’
समीक्षा-इस श्लोक के किसी शद से यह भासित नहीं होता कि इसमें बौद्ध धर्म का खण्डन है। जब मनु के समय में ही वर्णबाह्य अनार्य, असुर आदि लोग थे, तो उनकी भिन्न विचारधाराएं भी थीं, जो वेद विरुद्ध थीं। उनको छोड़कर इसे बौद्धों से जोड़ना अपनी अज्ञानता और पूर्वाग्रह को दर्शाना है। ऐसा करके साी लेखक, चाहे वे पाश्चात्य हैं या भारतीय, मनु के स्थितिकाल के विषय में भ्रम फैला रहे हैं और मनुस्मृति के भावों को स्वेच्छाचारिता एवं दुर्भावना-पूर्वक विकृत कर रहे हैं। इसे कहते हैं विरोध के लिए सत्य को तिलांजलि देना!
(ग) कितवान् कुशीलवान् क्रूरान् पाखण्डस्थांश्च मानवान्।
विकर्मस्थान् शौण्डिकांश्च क्षिप्रं निर्वासयेत् पुरात्। (9.225)
डॉ. अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘जो मनुष्य विधर्म का पालन करते हैं……. राजा को चाहिए कि वह उन्हें अपने साम्राज्य से निष्कासित कर दे।’’(वही, खंड 7, ब्राह्मणवाद की विजय, पृ0152)
शुद्ध अर्थ :-‘जुआरियों, अश्लील नाच-गान करने वालों, अत्याचारियों, पाखण्डियों, विरुद्ध या बुरे कर्म करने वालों, शराब बेचने वालों को राजा अपने राज्य से शीघ्रातिशीघ्र निकाल दे।’
समीक्षा :- संस्कृत पढ़ने वाला छोटा बच्चा भी जानता है कि कर्म, सुकर्म,विकर्म, दुष्कर्म, अकर्म इन शदों में कर्म ‘क्रिया’ या ‘आचरण’ का अर्थ देते है। इस श्लोक में ‘‘विकर्मस्थ’’ का अर्थ है-विपरीत, या विरुद्ध कर्म करने वाले लोग अर्थात् बुरे या निर्धारित कर्मों के विपरीत कर्म करने वाले लोग। इसमें कर्म का ‘धर्म’ अर्थ नहीं है। किन्तु डॉ0 अम्बेडकर ने यहा बलात् ‘धर्म’ अर्थ करके ‘विधर्मी’ यह अनर्थ किया है। ऐसा करके अनर्थकर्त्ता का प्रयोजन यह है कि वह विधर्मी से ‘बौद्धधर्मी’ मनमाना अर्थ लेना चाहता है और फिर मनु तथा मनुस्मृति को बौद्ध धर्म के बाद का ग्रन्थ बताकर मनु को बौद्धविरोधी सिद्ध करना चाहता है, जबकि पूर्वप्रदत्त प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि ‘मनुस्मृति’ बौद्धकाल से बहुत पहले की रचना है। क्या मनुविरोधियों का यही तटस्थ और कथित ऐतिहासिक एवं सत्य अनुसन्धान है?
(2) अशुद्ध अर्थ करके मनु को ब्राह्मणवादी कहकर बदनाम करना
(क) सैनापत्यं च राज्यं च दण्डेनतृत्वमेव च।
सर्वलोकाघिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति॥ (12.100)
डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘राज्य में सेनापति का पद, शासन के अध्यक्ष का पद, प्रत्येक के ऊपर शासन करने का अधिकार ब्राह्मण के योग्य है।’’ (वही, पृ0 148)
शुद्ध अर्थ :-‘सेनापति का कार्य, राज्यप्रशासन का कार्य, दण्ड और न्याय करने का कार्य, चक्रवर्ती सम्राट् होना, इन कार्यों को भली-भांति करने की योग्यता वेदशास्त्रों का विद्वान् ही रखता है। अर्थात् वही इन पदों के योग्य है।’
समीक्षा :-पाठक देखें कि मनु ने इस श्लोक में कहीं भी ब्राह्मण पद का प्रयोग नहीं किया है। वेद-शास्त्रों के विद्वान् तो क्षत्रिय और वैश्य भी होते थे। मनु स्वयं राजर्षि था और अपने समय का सर्वोच्च वेदशास्त्रज्ञ था [द्रष्टव्य मनु0 1.4]। यहां भी क्षत्रिय की योग्यता वर्णित की है। ब्राह्मण शद बलात् श्लोकार्थ में जोड़ लिया है। इसका लक्ष्य यह है कि इससे मनुस्मृति को ब्राह्मणवादी शास्त्र कहकर बदनाम करने का अवसर मिले। इसमें ‘वेदशास्त्रविद्’ शद है जिसका अर्थ स्पष्टतः ‘वेदशास्त्रों का विद्वान्’ होता है मनु की व्यवस्था के अनुसार ये क्षत्रिय के कार्य हैं (देखिए 1.89 श्लोक)। अतः यहां ‘वेदशास्त्रों का विद्वान् क्षत्रिय’ अर्थ है। ब्राह्मण अर्थ करना मनुमत के विरुद्ध भी है क्योंकि मनुमतानुसार ये ब्राह्मण के कार्य हैं ही नहीं। इस प्रकार पक्षपातपूर्ण और अशुद्ध अर्थ करना किसी भी लेखक व समीक्षक के लिए उचित नहीं है।
(ख) कार्षापणं भवेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।
तत्र राजाावेद्दण्ड्यःसहस्रमिति धारणा॥ (8.336)
डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘जहां निम्न जाति का कोई व्यक्ति एक पण से दण्डनीय है, उसी अपराध के लिए राजा एक सहस्र पण से दण्डनीय है और वह यह जुर्माना ब्राह्मणों को दे या नदी में फेंक दे, यह शास्त्र का नियम है।’’ (वही, हिन्दू समाज के आचार-विचार पृ0 250)
शुद्ध अर्थ :- जिस अपराध में साधारण मनुष्य एक कार्षापण (= पैसा) से दण्डित किया जाये, उसी अपराध में राजा को एक हजार पैसा (हजार गुणा) दण्ड होना चाहिए। यह दण्ड का मान्य सिद्धान्त है।
समीक्षा :-अर्थ में काले अक्षरों में अंकित वाक्य मनमाने ढंग से कल्पित हैं, जो श्लोक के किसी पद से नहीं निकलते। यह अनर्थ मनु को ब्राह्मणवादी होने का भ्रम फैलाने के लिए या फिर नदी में फैंकने की बात कहकर उसे मूर्ख और अन्धविश्वासी दिखाने के लिए किया गया है। एक ऊंचे आदर्शात्मक विधान को भी किस प्रकार निम्न स्तर का दिखाने की कोशिश है! पाठक इस रहस्य पर विचार करें।
(ग) शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मो यत्रोपरुध्यते।
द्विजातीनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते॥ (8.348)
डॉ. अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘जब ब्राह्मणों के धर्माचरण में बलात् विघ्न होता हो, तब द्विज शस्त्रास्त्र ग्रहण कर सकते हैं,और तब भी जब किसी समय द्विज वर्ग पर कोई भंयकर विपत्ति आ जाए।’’ (वही, हिन्दू समाज के आचार विचार, पृ0 250)
शुद्ध अर्थ :-‘जब द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों) के धर्मपालन में बाधा उत्पन्न की जा रही हो और किसी समय या किसी परिस्थिति के कारण उनमें विद्रोह उत्पन्न हो गया हो, तो उस समय द्विजों को भी शस्त्रधारण कर लेना चाहिए।’
समीक्षा :-पाठक ध्यान दें, इस श्लोक के अर्थ में ब्राह्मण शद बलात् प्रक्षिप्त किया है क्योंकि इस श्लोक में ब्राह्मण शद है ही नहीं। बहुवचन में स्पष्टतः तीनों द्विजातियों का उल्लेख है। यहां भी वही पूर्वाग्रह है मनु को ब्राह्मणवादी सिद्ध करने का। ‘‘विप्लवे’’ का यहां ‘विपत्ति’ अर्थ अशुद्ध है, सही अर्थ ‘विद्रोह’ है।
(3) अशुद्ध करके शूद्र के वर्णपरिर्वतन के सिद्धान्त को झुठलाना।
(क) शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः मृदुवागानहंकृतः।
ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥ (9.335)
डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘प्रत्येक शूद्र जो शुचिपूर्ण है, जो अपने से उत्कृष्टों का सेवक है, मृदुभाषी है, अहंकार रहित है और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है, (अगले जन्म में) उच्चतर जाति प्राप्त करता है।’’ (वही, खंड 9, अराजकता कैसे जायज है,पृ0117)
शुद्ध अर्थ :-‘जो शूद्र तन-मन से शुद्ध-पवित्र है, अपने से उत्कृष्टों की संगति में रहता है, मधुरभाषी है, अहंकाररहित है और जो सदा ब्राह्मण आदि उच्च तीन वर्णों के सेवाकार्य में रहता है, वह उच्च वर्ण को प्राप्त कर लेता है।’
समीक्षा :-यह मनु का वर्णपरिर्वतन का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है जिसमें शूद्र द्वारा उच्च वर्ण की प्राप्ति का वर्णन है। इसका अभिप्राय यह है कि मनु की वर्णव्यवस्था गुण ,कर्म, योग्यता पर आधारित है जो पूर्णतः आपत्तिरहित है। डॉ. अम्बेडकर ने इतने आदर्श सिद्धान्त का भी अनर्थ करके उसे विकृत कर दिया। इसमें दो अनर्थ किये गये हैं, एक-श्लोक में इसी जन्म में उच्च वर्ण प्राप्ति का वर्णन है, अगले जन्म का कहीं उल्लेख नहीं है। डॉ0 अम्बेडकर ने उच्चजाति की प्राप्ति अगले जन्म में वर्णित की है जो असंभव और मनमानी कल्पना है। दूसरा-श्लोक में ‘ब्राह्मण आदि’ तीन वर्णों के आश्रय का कथन है किन्तु उन्होंने केवल ब्राह्मणों का नाम लेकर इस सिद्धान्त को भी ब्राह्मणवादी पक्षपात में घसीटने की कोशिश की है। इतना उत्तम सिद्धान्त भी उन्हें नहीं सुहाया, महान् आश्चर्य है !!
(4) अशुद्ध अर्थ करके जातिव्यवस्था का भ्रम पैदा करना
(क) ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः त्रयो वर्णाः द्विजातयः।
चतुर्थ एक जातिस्तु शूद्रः नास्ति तु पंचमः॥ (10.4)
डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि मनु चातुर्वर्ण्य का विस्तार नहीं चाहता था और इन समुदायों को मिलाकर पंचम वर्ण की व्यवस्था के पक्ष में नहीं था, जो चारों वर्णों से बाहर थे।’’(वही खंड 9, ‘हिन्दू और जातिप्रथा में उसका अटूट विश्वास,’ पृ0 157-158)
शुद्ध अर्थ :-‘आर्यों की वर्णव्यवस्था में विद्यारूपी दूसरा जन्म होने के कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीन वर्ण द्विजाति कहलाते हैं। विद्याध्ययन रूपी दूसरा जन्म न होने के कारण ‘एकमात्र जन्मवाला’ चौथा वर्ण शूद्र है। पांचवां कोई वर्ण नहीं है।’
समीक्षा :-गुण, कर्म, योग्यता पर अधारित मनु की वर्णव्यवस्था की परिभाषा देने वाला और शूद्र को आर्य तथा सवर्ण सिद्ध करने वाला यह सिद्धान्ताी डॉ0 अम्बेडकर को नहीं भाया। दुराग्रह एवं कुतर्क के द्वारा उन्होंने इसको भी विकृत करने की कोशिश कर डाली। डॉ0 अम्बेडकर द्वारा विचारित अर्थ इस श्लोक में दूर-दूर तक भी नहीं है। मनु का यह आग्रह कहीं भी नहीं रहा कि आर्येतर जन वर्णव्यवस्था में समिलित न हों। उन्होंने तो ‘‘एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥’’ (2.20) श्लोक में पृथ्वी के साी वर्गो के लोगों का आह्वान किया है कि वे यहां आयें और अपने-अपने योग्य चरित्र-कर्त्तव्यकर्म की शिक्षा प्राप्त करें। अतः डॉ0 अम्बेडकर का कथन मनु की मान्यता और व्यवस्था के विपरीत है। इस श्लोक में मनु ने केवल आर्यों की वर्णव्यवस्था के चार समुदायों को परिभाषित किया है। अन्य कोई आग्रह या निषेध नहीं है। आश्चर्य है कि इस श्लोक की आलोचना करते समय डॉ0 अम्बेडकर अपने दूसरे स्थान पर किये प्रशंसात्मक अर्थ को भी भूल गये और परस्पर विरोधी लेखन पर बैठे। वहां उन्होंने इस श्लोक के आधार पर शूद्रों को आर्य माना है (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 8, पृ0 226; उद्धृत इस पुस्तक के पृ0 219 पर) सरकार की नौकरी व्यवस्था में चार समुदाय हैं- प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी। इस पर कोई आपत्ति करे कि ‘इसका मतलब सरकार पांचवें वर्ग को नौकरी ही नहीं देना चाहती,’ तो ऐसा ही बालपन का तर्क डॉ0 अम्बेडकर का है। चार वर्णों में जब विश्व के सभी जन समाहित हो जायेंगे तो पांचवें वर्ण की आवश्यकता ही कहां रहेगी?
(5) अशुद्ध अर्थ करके मनु को स्त्री-विरोधी कहना
(क) न वै कन्या न युवतिर्नाल्पविद्यो न बालिशः।
होता स्यादग्निहोत्रस्य नार्तो नासंस्कृतस्तथा॥ (11.36)
डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘स्त्री वेदविहित अग्निहोत्र नहीं करेगी।’’ (वही, नारी और प्रतिक्रान्ति, पृ0333)
शुद्ध अर्थ :-‘कन्या, युवती, अल्पशिक्षित, मूर्ख, रोगी और संस्कारों से हीन व्यक्ति, ये किसी अग्निहोत्र में होता नामक ऋत्विक् बनने के अधिकारी नहीं हैं।’
समीक्षा :-इस श्लोक का इतना अनर्थ कर दिया कि डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ में इसका न अर्थ है और न भाव। यहां केवल कन्या और युवती को ऋत्विक्=‘यज्ञ कराने वाली’ न बनाने का कथन है, अग्निहोत्र-निषेध का नहीं। न ही सारी स्त्री जाति के लिए यज्ञ का निषेध है। यह अनर्थ मनु को स्त्री-विरोधी सिद्ध करने के लिए किया गया है। इसको निष्पक्ष और सत्य शोध कैसे कहा जा सकता है?
(ख) पित्राार्त्रा सुतैर्वापि नेच्छेद्विरहमात्मनः।
एषां हि विरहेण स्त्री गर्ह्ये कुर्यादुभे कुले॥ (5.149)
डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘स्त्री को अपने पिता, पति या पुत्रों से अलग रहने की इच्छा नहीं करनी चाहिए, इनको त्यागकर वह दोनों परिवारों (उसका परिवार और पति का परिवार) को निंदित कर देती है। स्त्री को अपना पति छोड़ देने का अधिकार नहीं मिल सकता।’’ (वही पृ 203)
शुद्ध अर्थ :-‘स्त्री को अपने पिता,पति या पुत्रों से अलग रहने की इच्छा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इनसे पृथक् बिल्कुल अकेली रहने से (बलात्कार, अपहरण आदि अपराध की आशंका होने से) दोनों कुलों की निन्दा होने का भय रहता है।’
समीक्षा :-इस श्लोक में कहीं नहीं लिखा कि ‘‘स्त्री को अपना पति छोड़ देने का अधिकार नहीं मिल सकता।’’ श्लोक में स्त्रियों के लिए परामर्श- मात्र है कि स्त्रियां पिता, पति, पुत्र से अलग न रहें’’ श्लोकार्थ में उक्त निष्कर्ष स्वेच्छा से बलात् निकाला गया है जो श्लोक के विपरीत और मनुविरुद्ध है। मनु ने विशेष परिस्थितियों में पति-पत्नी को पृथक् हो जाने का अधिकार दिया है (9.74-81; द्रष्टव्य पृ0 167-168)। इस अनर्थ के द्वारा मनु को स्त्री-निन्दक सिद्ध करने का प्रयास है।
(ग) सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया।
सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया॥ (5.150)
डॉ. अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘उसे सर्वदा प्रसन्न, गृह कार्य में चतुर, घर में बर्तनों को स्वच्छ रखने में सावधान तथा खर्च करने में मितव्ययी होना चाहिए।’’ (वही, पृ0 205)
शुद्ध अर्थ :-‘पत्नी को सदा प्रसन्नमन रहना चाहिए, गृहकार्यों में चतुर, घर तथा घरेलू सामान को स्वच्छ-सुन्दर रखने वाली और खर्च करने में मितव्ययी होना चाहिए।’
समीक्षा :-‘‘सुसंस्कृत-उपस्करया’’ का ‘‘बर्तनों को स्वच्छ रखने वाली’’ अर्थ अशुद्ध है। ‘उपस्कर’ का अर्थ केवल बर्तन नहीं होता। यह संकीर्ण अर्थ करके स्त्री के प्रति मनु की संकीर्ण मनोवृत्ति दिखाने का प्रयास है। यहां ‘संपूर्ण घर व सारा घरेलू सामान’ अर्थ है, जो पत्नी के निरीक्षण में हुआ करता है।
(6) अशुद्ध अर्थों से विवाह-विधियों को विकृत करना
(क)(ख) आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्।
आहूय दानं कन्यायाः ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः॥ (3.27)
यज्ञे तु वितते सयगृत्विजे कर्म कुर्वते।
अलंकृत्य सुतादानं दैवं धर्मं प्रचक्षते॥(3.28)
एकं गोमिथुनं द्वे वा वरादादाय धर्मतः।
कन्याप्रदानं विधिविदार्षो धर्मः स उच्यते॥ (3.29)
डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘ब्राह्म विवाह के अनुसार किसी वेदज्ञाता को वस्त्रालंकृत पुत्री उपहार में दी जाती थी। दैव विवाह था जब कोई पिता अपने घर यज्ञ करने वाले पुरोहित को दक्षिणास्वरूप अपनी पुत्री दान कर देता था॥ आर्ष विवाह के अनुसार वर, वधू के पिता को उसका मूल्य चुका कर प्राप्त करता था।’’ (वही, खंड 8, उन्नीसवीं पहेली पृ0 231)
शुद्ध अर्थ :-‘वेदज्ञाता और सदाचारी विद्वान् को कन्या द्वारा स्वयं पसन्द करने के बाद उसको घर बुलाकर वस्त्र और अलंकृत कन्या को विवाहविधिपूर्वक देना ‘ब्राह्म विवाह’ कहाता है॥’
‘आयोजित विस्तृत यज्ञ में ऋत्विज् कर्म करने वाले विद्वान् को अलंकृत पुत्री का विवाहविधिपूर्वक कन्यादान करना ‘दैव विवाह’ कहाता है॥’
‘एक अथवा दो जोड़ा गायों का धर्मानुसार वर पक्ष से लेकर विवाहविधिपूर्वक कन्या प्रदान करना ‘आर्ष विवाह’ है।’ आगे 3.53 में गाय का जोड़ा लेना मनु मतानुसार वर्जित है॥
समीक्षा :-वैदिक व्यवस्था में विवाह एक प्रमुख संस्कार है और प्रत्येक संस्कार यज्ञीय विधिपूर्वक सपन्न होता है। मनु ने 5.152 में विवाह में यज्ञीयविधि का विधान किया है। संस्कार की पूर्णविधि करके कन्या को पत्नी के रूप में ससमान प्रदान किया जाता है। इन श्लोकों में उन्हीं विवाहविधियों का निर्देश है। डॉ0 अम्बेडकर ने उन सभी विधियों को अर्थ से निकाल दिया और कन्या को ‘उपहार’, ‘दक्षिणा’, ‘मूल्य’ में देने का अशुद्ध अर्थ करके समानित नारी से एक ‘वस्तु-मात्र’ बना दिया। श्लोकों में यह अर्थ किसी भी दृष्टिकोण से नहीं बनता। आर्ष विवाह में गाय का जोड़ा वैदिक संस्कृति में एक श्रद्धापूर्ण प्रतीक मात्र है। उसे वर और कन्या का मूल्य बता दिया गया है। क्या वर व कन्या का मूल्य ‘एक जोड़ा गाय’ ही है? कितना अनर्थ किया है!!
अनुवादक को जब भाषा, शैली, उसकी गभीरता और परपरा का सटीक ज्ञान नहीं होता तो उससे इसी प्रकार की भूलें हो जाती हैं। ‘कन्यादान’ का अर्थ तो आज भी ‘विवाह संस्कार करके कन्या देना’ परपरा में है। यह परपरा संस्कृत के इन्हीं श्लोकों से आयी है। पता नहीं डॉ0 अम्बेडकर ने उनकोाी गलत क्यों प्रस्तुत किया?
उपर्युक्त उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया गया है कि भाषा, शदशैली और वैदिक परपरा की वास्तविकता के ज्ञान के अभाव में कैसी-कैसी भयंकर भूलें डॉ0 अम्बेडकर से हुई हैं, और कैसे गलत निष्कर्ष प्रस्तुत हुए हैं। इन श्लोकों में मनु बिल्कुल ठीक थे, किन्तु उन्हें गलत रूप में प्रस्तुत किया गया है। डॉ0 अम्बेडकर के साहित्य में ऐसी दर्जनों भूलें या दुराग्रह और भी हैं। विस्तारभय से यहां उनकी समीक्षा नहीं की जा रही है। यदि उक्त अनर्थ नहीं किये जाते तो डॉ0 अम्बेडकर की आलोचना वस्तुतः निष्पक्ष मानी जा सकती थी, किन्तु अब वह अशुद्ध, दुराग्रहपूर्ण और अप्रामाणिक हो गयी है।
Manu may not be responsible for the creation of caste .Manu preached the sanctity of the Varna and Varna is the parent of caste .In that sense Manu can be charged with bieng the progenitor if not the author of the Caste System .whatever be the case as to the guilt of Manu regarding the Caste System there can be no question that Manu is responsible for upholding the principal of gradation and rank.
In the scheme of Manu the Brahmin is place d at the first in rank . Below him is the Kshatriya . Below Kshatriya is the Vaishya .Below vaishya is the Shudra and Below Shudra is the Ati-Shudra (the untouchable).
This system of rank and gradation is ,simply another way of enunciating the principal of inequality so that it may be truly said that Hinduism does not recognise equally .this inequality in status is not .merely the inequality that one sees in the warrant of precedence prescribed for a ceremonial gathering at a King’s Court .
It is a permanent social relationship among the classes to be observed_ to be enforced _ at all timse in all place and for all purposes. It wil take too to show how in every phase of life M anu has introduced and made inequality the vital force of life .
there is grade system according to the Deed and knowledge only.
Every person used to graded according to his deeds and wisdom in result son of lower Varn used to classified in Higher Varn and Vice vesa