डॉ0 अम्बेडकर र वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्रों को दास के रूप में स्वीकार नहीं करते। उन्होंने प्रमाण के रूप में मनु के निनलिखित श्लोकार्थ उद्धृत किये हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि मनु के मतानुसार वेतन ओर जीविका पाने वाला नौकर या सेवक कभी दास नहीं होता। यदि इनके विरुद्ध वर्णन वाले श्लोक मनुस्मृति में पाये जाते हैं तो वे परस्परविरोधी होने से प्रक्षिप्त हैं। डॉ0 अम्बेडकर र द्वारा प्रस्तुत प्रमाण हैं-
(क) डॉ0 अम्बेडकर र मनुस्मृति की मौलिक व्यवस्थाओं में आये श्लोकों में पठित ‘दास’ शद का अर्थ सेवक ही करते हैं, जो सर्वथा सही है। पूर्व पंक्तियों में उद्धृत नामकरण संस्कार-सबन्धी श्लोक पर –‘‘शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्’’ (2.6-7[2.31-32]) में दास का अर्थ उन्होंने सेवक किया है-
‘‘नाम दो भागों का होना चाहिए….शूद्रों के लिए दास (सेवा)।’’ तथा ‘‘शूद्र का (नाम) ऐसा हो जो सेवा करने का भाव सूचित करे।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 6, पृ0 58; खंड 7, पृ0 201)
(ख) ‘‘ब्राह्मणों को चाहिए कि वे अपने परिवार (की संपत्ति) में से उसे (शूद्र को) उसकी योग्यता, उसके परिश्रम तथा उन व्यक्तियों की संया के अनुसार, जिनका उसे (शूद्र को) भरण-पोषण करना है, उचित जीविका निश्चित करें(मनुस्मृति 10.124)।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 318)
(ग) ‘‘(संन्यासी) मरने या जीने की चाह न करे किन्तु नौकर जिस प्रकार वेतन की प्रतीक्षा करता है, उसी प्रकार काल की प्रतीक्षा करता रहे (मनुस्मृति 6.45)।’’ (वही, खंड 8, पृ0 214)
(घ) ‘‘यह सत्य है कि ऋग्वेद में शूद्र का दस्यु या सेवक के अर्थ में उल्लेख हुआ है।……जब तक यह सिद्ध नहीं होता कि ये दोनों (शूद्र, दास) एक ही थे, तब तक ऐसा निर्णय करना कि शूद्र दास बनाए गए, मूर्खता होगी। यह ज्ञात तथ्यों के विरुद्ध भी होगा।’’ (वही, खंड 13, पृ0 86)
जब मनुस्मृति में इतने स्पष्ट वचन हैं जिनसे सिद्ध होता है कि शूद्र ‘दास’ नहीं थे, फिर केवल प्रक्षिप्त श्लोकों के आधार पर मनु का विरोध क्यों? डॉ0 अम्बेडकर र जब उक्त श्लोकार्थों को प्रमाण के रूप में उद्धृत कर रहे हैं तो उसका अभिप्राय है कि उनको वे प्रमाण मान्य हैं जिनमें शूद्रों के दास=गुलाम न होने का कथन है। एकमत होने पर भी मनु का विरोध क्यों? इसका उत्तर अपेक्षित है।
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