नव्बोद्ध अक्सर ये प्रचार करते है कि ध्यान नामक पद्धति बोद्धो ने वैदिक धर्मियों को दी थी | ओर बोद्धो से ध्यान सनातन मत में गया |
लेकिन ये लोग यह बात भूल जाते है कि सिद्धार्थ गौतम की ही जीवनी में उन्होने सनातनी गुरुओ से ही ओर सन्यासियों से वन में योग विद्या सीखी थी ओर जंगल में जा कर सिद्धार्थ ने ध्यान किया यह बात सभी मानते है यदि वो स्वयम ही आविष्कारक होता तो उसे पूर्व निश्चय केसे हुआ की जंगल में ध्यान करने जाऊँगा ? इससे स्पष्ट है कि ध्यान सिद्धार्थ से पूर्व था इसलिए उसने पहले ही ध्यान करने का निश्चय ही किया था | अब आते है पतंजली ने क्या बोद्धो से योग विद्या सीखी ?
इस भ्रम का कारण है कि ये लोग योग सूत्रकार पतंजली ओर महाभाष्यकार पतंजली को एक ही समझ बेठे है जबकि महाभाष्यकार पतंजली शंकु कालीन थे ओर योगसूत्र कार महाभारत के समय के या इसके पूर्व के है | यदि महाभाष्यकार ओर योग सूत्रकार को एक मानने पर निम्न समस्या आती है जिसका समाधान कोई भी नवबोद्ध नही कर सकते है वो यह की पतंजली योगसूत्र पर बादरायण व्यास का भाष्य है | ओर बादरायण व्यास महाभारत वाले व्यास कृष्णद्वेपायान है | यदि पतंजली को शंकु वंश वाला पतंजली माना जाए तो यह कैसे सम्भव है कि महाभारत काल का व्यक्ति शंकु काल में भाष्य लिख जाए | इससे स्पष्ट है कि पतंजली व्यास से भी पूर्व के है | ओर व्यास बुद्ध से पूर्व इस प्रमाण से सिद्ध है की सनातन धर्म में ध्यान –योग बोद्ध मत से भी पूर्व था |
ये बात योग दर्शन की हुई लेकिन वेद , उपनिषद , ओर सांख्य ,न्याय दर्शन बोद्ध दर्शन ओर बुद्ध से पूर्व के है ओर न्याय दर्शन सांख्य दर्शन बुद्ध से पुराना है इसे कई बोद्ध विद्वान ओर डाक्टर अम्बेडकर भी मानते है उनकी पुस्तक बुद्धा एंड हिज धम्म के बुद्ध ओर उनके पूर्वज नामक अध्याय में देख सकते है |
अब कुछ प्रमाण उपरोक्त ग्रंथो से जिनसे सिद्ध होगा की ध्यान आदि बोद्धो से पूर्व हमारे दर्शनों में था –
देखे न्याय दर्शन –
“ तदर्थ यमनियमाभ्यामात्मसंस्कारों योगाच्चाध्यात्मविध्युपाये: ||४६||”
उस मोक्ष प्राप्ति के लिए यम नियम योग (ध्यान आदि ) तथा अध्यात्मशास्त्र के उपायों से आत्मा का संस्कार करना चाहिय|- न्याय दर्शन ४/२/४६
देखे सांख्य दर्शन से –
“भावनोपचयाच्छुध्दस्य सर्व प्रक्रतिवत्” ||२९ ||
शुद्धांत करण योगी समाधि भावना की अत्युकृष्ट योगज शक्ति के कारण वह सब कुछ कर सकता है जो प्रक्रति नियम अनुकूल हो |
“ रागोंपहतिर्ध्यानम “||३०||
संसार में आसक्ति इन्द्रिय भोगो में प्रवृति का नाम राग है | इस राग की निवति ध्यान है ,मन का स्थिर होना है |
धारणासनस्वकर्मणा तत्सिद्धि: ||३१||”
वृतियो के निरोध से ध्यान की सिद्धि होती है |
सांख्य के इतने प्रमाण ही देना ठीक है अन्यथा ३/२३-३६ तक सूत्र ध्यान पर ही प्रकाश डालते है |
अब उपनिषद से देखिये –
“ श्वेताश्वतर उपनिषद में योग के लाभ बताते हुए लिखा है –
पहले शारीरिक उपलब्धी लिखी है –
“ लघुत्वमारोग्य …………………………………… प्रथमा वदन्ति || २/१३ ||”
योग में प्रवृति का पहला फल यह है कि योगी का शरीर हल्का हो जाता है | निरोगी हो जाता है | विषयों की लालसा मिट जाती है ,कान्ति बढ़ जाती है ,स्वर मधुर हो जाता है | शरीर से सुगंध निकलता है ,मल मूत्र अल्प हो जाता है अर्थात भोजन ठीक से पचता है |
फिर आत्मिक उपलब्धि बताते है –
“ यथैव बिम्ब ……………………….वीतशोक: ||२/१४ ||”
जैसे मिटटी से लत पत स्वर्ण पिंड खूब धोने पर तेजोमय होकर चमकने लगता है , इसी प्रकार देह योगी भीतर प्रकाशमान आत्म तत्व को देख लेता है ओर इस संसार में कृतार्थ ओरन वीत शोक हो जाता है |
इस उपनिषद में योग प्राणायाम की विधि है जिसे इसी २ अध्याय में पढ़ा जा सकता है अन्य उपनिषद जेसे छान्दोग्य आदि में उपासना आदि विषयों में प्रणव का ध्यान है |
अब वेदों में योग विद्या के मन्त्र भी लिखते है –
उपहरे गिरीणा संगथे च नदीनाम |
धिया विप्रो अजायत ||- ऋग्वेद ८/६/२८ ||
पहाडो की गुफाओं में ओर नदियों के संगम पर ध्यान करने से विप्र बनते है |
योगे योगे तवस्तर वाजे हवामहे |
सखाय इंद्रमूतये || यजु ११/१४ ||
बार बार योगाभ्यास करते ओर मानसिक शारीरिक बल बढाते समय हम सब परस्पर मित्रभाव से युक्त होकर अपनी रक्षा के लिए अनन्त बलवान ऐश्वर्यशाली ईश्वर का ध्यान करते है |
ध्यान की परम्परा या इनका आधिप्रवर्तक सनातन धर्म में मह्रिषी ब्रह्मा ओर मह्रिषी हिरण्यगर्भ माने जाते है इन्होने वेदों से योग का प्रचार किया था महाभारत में आता है –
सांख्यस्य वक्ता कपिल: परमऋषि स उच्यते |
हिरण्यगर्भो योगस्य वेत्ता नान्य: पुरातन: ||- मा. भा. शा. २४९/६५
इसी तरह हिरण्यगर्भ ऋषि का नाम योगी याज्ञवल्क्य स्मृति में भी है –
हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्य: पुरातन:| – यो. याज्ञ. १२/५
इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि बुद्ध से पूर्व सनातन धर्म में था | बोद्धो से सनातन में योग नही गया था बल्कि असल में बुद्ध ने जेसे आज के नये नये पोंगे पोप ,विभिन्न सम्प्रदायों के पाखंडी अपने अनुसार वैदिक ध्यान पद्धति से हट कर विभिन्न तरह की ध्यान पद्धति बना लेते है वेसे ही बुद्ध ने बनाई | हालकी गौतम बुद्ध ने भी ये विपसना (आन अपानस्याति) स्वयम की नही बताया बल्कि अपने पूर्ववर्ती बौद्ध भगवान दीपांकर की बताया है | सम्भवतय इस पद्धति का आविष्कार केसे हुआ यह खोज का विषय है लेकिन ये ध्यान की सही पद्धति नही है न ही ये योग है योग में प्राणयाम नामक एक अंग प्राणयाम का भी अल्प भाग है या उसके समान है | जिसमे बस श्वासों पर ही नियन्त्रण किया जाता है | जहा तक मेरा विचार है बुद्ध ने योग को केवल श्वासों का नियन्त्रण ही समझा होगा ओर ये पद्धति दी क्यूंकि जब कोई ईश्वर के ध्यान में मग्न होता है तब स्वत: ही उसकी श्वास ऐसी हो जाती है कि मानो वह श्वास न ले रहा है न छोड़ रहा है | जिसे व्यान भी कहते है यह स्थति ध्यान के वक्त बन जाती है जेसा छान्दोग्योपनिषद् में कहा है – “ अतो …………….हेतोवर्यानमेंवोद्गीथमुपासते || १/३/५ ||
इसमें उद्गीत उपासना में श्वास – प्रश्वास का नियन्त्रण हो कर व्यान अवस्था का उलेख है | व्यान की स्थति में ओमकार का ध्यान (उपासना ) का वर्णन है |
ध्यान की इस स्थति को देख बुद्ध ने मात्र श्वास प्रश्वास के नियन्त्रण के लिए श्वासों पर ध्यान रख ऐसी स्थति लाने की विधि बताई जहा श्वास ओर विचारों से आदमी शून्य हो जाये |क्यूंकि बुद्ध की नजर में ध्यान शून्य होना ही है | एक तरह से व्यक्ति को जड जेसा बनाना है जबकि इसके विपरीत योगदर्शन में व्यक्ति को ज्ञान ,मोक्ष कराना वैदिक ध्यान पद्धति का उद्देश्य है | विपसना पद्धति की असफलता के बारे में जान्ने के लिए हमारी पिछली पोस्ट विपसना पद्धति पर आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक के प्रश्न अवश्य देखे |
यहा हम कह सकते है कि योग ध्यान भारतीय ऋषियों में बुद्ध से पूर्व प्रचलित था बुद्ध ने तो बस एक विपसना पद्धति की ही खोज की थी | योग को बोद्धो से वैदिक धर्म में प्रवेश बताना मात्र नवबोद्धो(वामसेफ ) की जलन ओर सनातन धर्म के प्रति कुंठित मानसिकता का कारण है |
संधर्भित ग्रन्थ एवम पुस्तके –
(१) योगदर्शन – व्याख्याकार उदयवीर शास्त्री जी
(२)योगदर्शन व्यास भाष्य सहित – व्याख्याकार सत्यपति जी
(३) एकादशोपनिषद – सत्यव्रत सिद्धन्तलन्कार
(४) वेद रहस्य – नारायण स्वामी
(५) षडदर्शन – स्वामी जगदीश्वरानंद